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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व । [ १४६५ अर्थात जिनेन्द्र के स्मरण मात्र से यह जीव संसार के दुखों से छूट जाता है। जिनेन्द्र के चरणकमल भक्तपुरुषों के लिये उत्कृष्ट खजाने के समान हैं । जिनेन्द्र की श्रेष्ठ प्रतिमा सब कार्यों की सिद्धि करनेवाली है। गत्वकस्तुतमेव वासमधुना, तं ये च्युतं स्वगते । यन्नत्यति सुशर्मपूर्णमधिका शान्ति अजित्वाध्वना ॥ यभक्त्या शमिताकृशाधयमरुज तिष्ठज्जनः स्वालये। ये सबभोग कदायतिव यजते, ते मे जिना सुश्रिये ॥११६॥ इस श्लोक में श्री समन्तभद्र आचार्य ने यह बतलाया है कि जिनेन्द्र को नमस्कार करने मात्र से पूर्ण-अनंत सुख प्राप्त हो जाता है और भक्ति से यह जीव अधिक शांति को पाकर रत्नत्रय रूप मार्ग के द्वारा स्वालय अर्थात् मोक्ष में जाकर निवास करता है। इन दोनों श्लोकों में श्री समन्तभद्र आचार्य ने भक्ति रूप शुभोपयोग का फल मोक्षप्राप्ति बतलाया है। भिन्नात्मानमुपास्यात्मा परो भवत तादृशः । वतिर्वीपं यथोपास्य भिन्ना भवति तादृशी ॥९७॥ [समाधितंत्र] श्री पूज्यपाद आचार्य ने इस श्लोक में कहा है-अपने से भिन्न अरहंत परमात्मा की उपासना-प्राराधना करके उन्हीं के समान परमात्मा हो जाता है। जैसे दीपक से भिन्न अस्तित्व रखने वाली बत्ती भी दीपक की आराधना करके ( उसका सामीप्य प्राप्त करके ) दीपक-स्वरूप हो जाती है । सिद्धज्योतिरतीव निर्मलतरज्ञानकमूर्ति-स्फुरद् वतिर्वीपमिवोपसेव्य लभते योगी स्थिरं तत्पम् ।।८।१२॥ [पद्य-नन्दि पंचविंशति] अर्थ-जिस प्रकार बत्ती दीपक की उपासना करके उसके पद को प्राप्त कर लेती है, अर्थात् दीपकस्वरूप परिणम जाती है, उसी प्रकार अत्यन्त निर्मल ज्ञान-स्वरूप सिद्ध-ज्योति की आराधना करके योगी भी स्वयं सिद्धपद को प्राप्त कर लेता है। पवित्रं यन्निरातंक सिद्धानां पदमव्ययम् । दुष्प्राप्यं विदुषामर्थ्य प्राप्यते तज्जिनार्चकः ॥१२॥३९॥ [अमितगति श्रावकाचार] अर्थात्-जिनदेव के पूजक पुरुष सिद्ध पद को प्राप्त होते हैं। एकाऽपि समर्थेयं जिनभक्तिर्दुर्गति निवारयितुम् । पुण्यानि च पूरयितुं दातुमुक्तिश्रियं कृतिजनम् ॥१५५॥ [उपासकाध्ययन] श्री पं० कैलाशचन्दजी इसी 'उपासकाध्ययन' ग्रन्थ में इसका अर्थ लिखते हैं 'अकेली एक जिनभक्ति ही ज्ञानी के दुर्गति का निवारण करने में, पुण्य का संचय करने में और मुक्ति रूपी लक्ष्मी को देने में समर्थ है। एकाऽपि शक्ता जिनदेवभक्तिर्या दुर्गतेर्वारयितु हि जीवान् । आसीद्वितत्सौख्यपरं परार्थपुण्यं नवं पूरयितु समर्था ॥२२॥३८॥ (वरांगचरित) इस श्लोक में भी यह कहा गया है कि जिनदेव की भक्ति से उत्कृष्ट सुख अर्थात् मोक्षसुख प्राप्त होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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