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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १४६७ अर्थ-हे मुनिगण ! माप अरहन्त और सिद्ध की प्रकृत्रिम और कृत्रिम प्रतिमाओं की भक्ति करो। जैसे शत्रुओं की अथवा मित्रों की फोटो दीख पड़ने पर द्वेष और प्रेम उत्पन्न होता है, यद्यपि उस फोटो ने उपकार अथवा अनुपकार कुछ भी नहीं किया है तथापि वह शत्रुकृत-अपकार और मित्रकृत-उपकार का स्मरण होने में कारण है। वैसे ही जिनेश्वर और सिद्धों के अनन्त ज्ञान, अनन्तदर्शन, सम्यग्दर्शन, वीतरागतादिक गुण यद्यपि अरहंत प्रतिमा में और सिद्ध प्रतिमा में नहीं हैं तथापि उन गुणों का स्मरण होने में वे प्रतिमा कारण होती हैं, क्योंकि प्ररहंत और सिद्धों का उन प्रतिमाओं में सादृश्य है। यह गुणस्मरण अनुरागस्वरूप होने से ज्ञान और श्रद्धान को उत्पन्न करता है और इससे नवीन कर्मों का अपरिमित संवर और पूर्व बँधे हुए कर्मों की महानिर्जरा होती है । इसलिये शुद्धात्म-स्वरूप की प्राप्ति होने में सहायक ऐसी चैत्यभक्ति हमेशा करो। कर्म भक्तया जिनेन्द्राणां, क्षयं भरत गच्छति । क्षीणकर्मा पदं याति यस्मिन्ननुपमं सुखम् ॥३२॥१८३॥ पद्मपुराण अर्थ-हे भरत ! जिनेन्द्रदेव की भक्तिरूप शुभभाव से कर्म क्षय को प्राप्त हो जाते हैं और जिसके कर्म क्षीण हो जाते हैं, वह अनुपनं ( अतं.न्द्रिय ) सुख से सम्पन्न परम-पद अर्थात् मोक्ष प्राप्त करता है। "जिनबिबानि भव्यजनभक्तयनुसारेण गीर्वाणनिर्वाणपद-प्रदायीनि गरुडमुद्रया यथा गरलापहरणं तथा चैत्यलोकनमात्रेणेव दुरितापहरणं भवत्यतश्चत्यस्यापि वन्दना कार्या' ॥ ( चारित्रसार पृ० १५०) अर्थ-जिनबिंब भव्य लोगों की भक्ति के अनुसार स्वर्ग और मोक्ष पद देते हैं। जिस प्रकार गरुड़मुद्रा से विष दूर हो जाता है, उसी प्रकार जिनबिंब के दर्शन मात्र से पापों का नाश हो जाता है। इसलिये जिनबिंब की वन्दना करनी चाहिये और जिनबिंब के आश्रय होने से चैत्यालय की भी वन्दना करनी चाहिये। प्रशस्ताध्यवसायेन संचितं कर्म नाश्यते । काष्ठं काष्ठांतकेनेव दीप्यमानेन निश्चितम् ॥८॥५॥ अमितगति श्रावकाचार अर्थ-जैसे जाज्वल्यमान आग से काठ का नाश होता है वैसे ही शुभ परिणाम अर्थात् पुण्य रूप जीव परिणाम से संचित कर्म नाश को प्राप्त होता है। 'आप्त-मीमांसा' कारिका ९५ की टीका में 'अष्टशती' और 'अष्टसहस्री' के आधार पर इस प्रकार लिखा तो मंद कषाय रूप परिणाम कू कहिये है। बहुरि संक्लेश तीव्र कषाय रूप परिणाम कू कहिए है। तहाँ विशुद्धि का कारण, विशुद्धि का कार्य, विशुद्धि का स्वभाव ये तो विशुद्धि के अंग हैं, बहुरि प्रात-रौद्र ध्यान का प्रभाव सो विशद्धि का कारण है। बहरि सम्यग्दर्शनादिक विशुद्धि के कार्य हैं। बहरि धर्म, शुक्ल ध्यान के परिणाम हैं, ते विशुद्धि के स्वभाव हैं । तिस विशुद्धि के होते ही प्रात्मा प्राप विर्षे तिष्ठे है ।' इन तीस पार्षग्रन्थों के प्रमाणों से यह सिद्ध है कि शुभोपयोग, शुभ भाव, विशुद्ध भाव या पुण्यभाव इनसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। इनसे अधिक प्रमाण भी दिये जा सकते थे किन्तु कलेवर बढ़ जाने के भय से नहीं दिये गये। जिनको पार्षग्रन्थों पर श्रद्धा है उनके लिए उपयुक्त तीस प्रमाण भी पर्याप्त हैं । (३) अजीव पुण्य (पौद्गलिक पुण्यकर्म) मोक्षमार्ग में सहकारीकारण है पुण्य की परिभाषा 'पुनात्यात्मानं पूयतेऽनेनेति वा पुण्यम्, तत्सद्वद्यादि ।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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