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________________ १४६४ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : जिस धर्मध्यान को श्री उमास्वामी आचार्य ने तत्वार्थसूत्र में 'परे मोक्षहेतू' सूत्र द्वारा, मोक्ष का कारण कहा है, उस धर्मध्यान को श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने उपर्युक्त गाथा में शुभोपयोग कहा है । अर्थात् शुभोपयोग मोक्ष का कारण है ऐसा श्री कुन्दकुन्द आचार्य का कहना है । भाव पाहुड गाथा ७६ में जिस धर्मध्यान को शुभोपयोग कहा है उसी धर्मध्यान से मोहनीय कर्म का क्षय होता है । श्री वीरसेन आचार्य ने कहा भी है 'मोहनीयविणासो पण धम्मज्झाणफलं, सुहुमसांपरायचरिमसमए तस्स विणासुवलंभादो ।' [ धवल पु० - अर्थ — मोहनीय कर्म का विनाश करना धर्मध्यान ( शुभ भाव, पुण्य भाव ) का फल है, साम्पराय दसवें गुणस्थान के अन्तिम समय में मोहनीय कर्म का विनाश देखा जाता है । श्री वीरसेन आचार्य ने जिनपूजा आदि शुभ भावों से कर्म - निर्जरा का कथन किया है और कर्मों की निर्जरा मोक्ष का कारण है । 'जिणपूजा-वंदण णामं सरणेहि य बहुकम्मपदेस णिज्जरवलंभादो ।' ( धवल पु. १० पृ. २८९ ) अर्थ - जिनपूजा, वंदना और नमस्कार आदि शुभभावों से भी बहुत कर्मप्रदेशों की निर्जरा पाई जाती है । निर्जरा मोक्ष का साधन है । इसलिये जिनपूजा प्रादि शुभ भाव मोक्ष के कारण हैं। ऐसा श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने भी 'रयणसार' में कहा है- समान है । पूयाफलेण तिलोए सुरपुज्यो हवेइ सुद्धमणो । दाणफलेण तिलोए सारसुहं भुजदे गियदं ॥ १४ ॥ अर्थात् - यदि कोई शुद्ध मन अर्थात् इंद्रिय सुख की अभिलाषा से रहित जिनपूजा करता है तो उस पूजा रूप शुभभाव का फल तीन लोक में देवों से पूजित अरहंत पद है और दान रूप शुभ भाव का फल तीनलोक का सार-सुख अर्थात् मोक्ष का सुख मिलता है । १३ पृ० ८१ ] क्योंकि सूक्ष्म श्री समन्तभद्र आचार्य ने भी स्तुतिविद्या में, जिनभक्ति रूप शुभ भाव से संसार का नाश होता है ऐसा कहा है जन्मारण्यशिखी स्तवः स्मृतिरपि क्लेशाम्बुधेनौ पदे । भक्तानां परमौ निधी प्रतिकृतिः सर्वार्थसिद्धिः परा ॥११५॥ Jain Education International अर्थ - जिनेन्द्र भगवान का स्तवन रूप शुभभाव संसार रूपी अटवी को नष्ट करने के लिये अग्नि के अर्थात् जिस प्रकार अग्नि अटवी को नष्ट करती है उसी प्रकार जिनेन्द्र का स्तवन रूप शुभ भाव भी संसार के भ्रमरण को नष्ट कर देता है और मोक्ष को प्राप्त करा देता है । जिनेन्द्र का स्मरण दुखरूप समुद्र से पार होने के लिये नौका के समान है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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