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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १४६३ __ इस गाथा में श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने बतलाया है कि जो भक्त भावपूर्वक अरहंत को नमस्कार करता है वह शीघ्र ही नमस्कार रूप शुभ भाव से सम्पूर्ण दुखों से मुक्त होता है अर्थात् मोक्ष को प्राप्त करता है। भत्तीए जिणवराणं खीयदि जं पृथ्वसंचियं कम्म, आयरियपसाएण य विज्जा मंता य सिझंति ।।७-८१॥ [मू. चा.] श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने इस गाथा के पूर्वार्ध में बतलाया है कि जिनेश्वर की भक्ति रूप शुभ भाव से संचित कर्म का नाश होता है। जम्हा विरणेदि कम्मं अटुविहं चाउरंगमोक्खो य । तम्हा वदंति विदुसो विणओत्ति विलीणसंसारा ॥७-९०॥ [मू. चा.] इस गाथा में श्री कुन्दकुन्द आचार्य कहते हैं-'विनय रूप शुभ भाव से आठ प्रकार के कर्मों का नाश होकर चतुर्गति संसार से प्रात्मा मुक्त होता है। विणएण विप्पहीणस्स हवदि सिक्खा णिरत्थिया सव्वा । विणओ सिक्खाए फलं विणयफलं सव्वकल्लाण ॥७-१०५॥ कन्द आचार्य ने इस गाथा में बतलाया है कि विनय रूप शूभभाव का फल सर्व कल्याण अर्थात् मोक्ष है। विणओ मोक्खद्दारो विणयादो संजमो तवो गाणं । विणएणाराहिज्जदि आइरिओ सव्वसंघो य ॥७-१०६॥ [मू. चा.] श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने विनय रूप शुभभाव को मोक्ष का द्वार बतलाया है। तम्हा सव्वपयत्तो विणयत्तं मा कदाइ छंडेज्जो। अप्पसुदोवि य पुरिसो खवेदि कम्माणि विणएण ॥७-१८॥ श्री कुन्दकुन्द आचार्य कहते हैं-कभी विनय का त्याग नहीं करो, पूर्ण प्रयत्न से विनय का पालन करो, क्योंकि अल्प ज्ञानी भी विनय रूप शुभ भाव से कर्मों का क्षय करता है। इसप्रकार श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने तथा श्री अमृतचन्द्र आचार्य ने 'प्रवचनसार', 'अष्टपाहुड' व 'मूलाचार' आदि ग्रंथों में शुभोपयोग से तथा भक्तिरूप शुभोपयोग से व विनयरूप शुभोपयोग से मोक्ष की प्राप्ति बतलाई है। जिससे परमात्म-पद प्राप्त होता हो ऐसा शुभोपयोग रूप पुण्य सर्वथा हेय नहीं हो सकता, वह कथंचित् उपादेय भी है, इसीलिये श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने इसको पालन करने का उपदेश दिया है। भावं तिविहपयारं सुहासुहं सुद्धमेव णायव्वं । असुहं च अट्ठरुद्द सुह धम्मं जिणरिदेहि ॥७६॥ [भाव पाहुड] भाव तीन प्रकार का जानना चाहिये, शुभ, अशुभ और शुद्ध । पार्तध्यान, रौद्रध्यान अशुभ भाव हैं, धर्मध्यान शुभ भाव है, ऐसा जिनेन्द्र देव ने कहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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