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________________ १४५८ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : अर्थात् — मङ्गल, पुण्य, पूत, पवित्र, शिव, शुभ, कल्यारण भद्र और सौख्य इत्यादि मङ्गल के पर्यायवाची नाम हैं । शंका- मङ्गल के एकार्थवाचक अनेक शब्दों का प्रतिपादन किसलिये किया जाता है ? उत्तर - अनेक पर्यायवाची नामों के द्वारा मङ्गलरूप अर्थ का प्रतिपादन किया जाता है, इसलिये प्राचीन आचार्यों ने अनेक शास्त्रों में भिन्न-भिन्न शब्दों के द्वारा मङ्गल रूप अर्थ का प्रयोग किया है । जो मल का गालन करे, विनाश करे, दहन करे, घात करे, शोधन करे, विध्वंस करे, उसे मंगल कहते हैं । वह मल दो प्रकार का है । द्रव्यमल, भावमल । ज्ञानावरण श्रादि श्राठ प्रकार के कर्म द्रव्यमल हैं । अज्ञान और अदर्शन आदि ( राग, द्वेष, मोह श्रादि ) परिणामों को भावमल कहते हैं । श्री यतिवृषभ आचार्य ने भी तिलोयपण्णत्ति (१ ८,९,१४ ) में पुण्य अपरनाम मङ्गल के पर्यायवाची नाम बतलाकर यह कहा है कि पुण्य, द्रव्य और भाव दोनों प्रकार के मलों को गलाकर श्रात्मा को पवित्र करता है । गाथा इस प्रकार है पुष्णं पूदपवित्ता पसत्य सिवभदखे मकल्लाणा । सुहसोक्खादी सव्वेणिविट्टा मंगलस्स पज्जाया ॥८॥ गायदि विणा सयदे घावेदि वहेवि हंति सोधयदे । विद्ध सेदि मलाई जम्हा तम्हा य मंगलं भणिदं ॥ ९ ॥ अहवा बहुभेयगयं णाणावरणा दिदव्वभावमलभेदा । ताई गाइ पुढं जदो तदो मंगलं भणिदं ॥ १४ ॥ अर्थ -- पुण्य, पूत, पवित्र, प्रशस्त, शिव, भद्र, क्षेम, कल्याण शुभ और सौख्य इत्यादिक सब मंगल के ही समानार्थक शब्द कहे गये हैं । ( पुण्य और मंगल इन दोनों शब्दों के अर्थ में कोई अन्तर नहीं है । जो मंगल का अर्थ है, वही पुण्य का अर्थ है | ) ||८|| क्योंकि यह मलों को गलाता है, विनष्ट करता है, घातता है, दहन करता है, हनता है, शुद्ध ( पवित्र ) करता है और विध्वंस करता है, इसलिये इसे मंगल अर्थात् पुण्य कहते हैं ||९|| अनेक भेद-युक्त ज्ञानावरणादि कर्मरूप द्रव्य मलों और अज्ञान प्रदर्शन आदि भावमलों को यह गलाता है इसलिये यह मंगल अथवा पुण्य कहा गया है । इन वाक्यों से स्पष्ट हो जाता है कि 'मंगल' और 'पुण्य' ये दोनों एकार्थवाची हैं । जो आत्मा के द्रव्यकर्म और भावकर्म रूपी मल का नाश करके आत्मा को पवित्र करता है, उसे 'पुण्य' कहा गया है। आर्ष ग्रन्थों में 'पुण्य' की परिभाषा इस प्रकार दी गई है । पुण्य की उपर्युक्त परिभाषा ध्यान में रहने से पुण्य - सम्बन्धी चर्चा ठीक-ठीक सरलता से समझ में श्रा सकती है । अर्थात् जो श्रात्मा को पवित्र करे ऐसा पुण्य क्या सर्वथा त्याज्य अथवा हेय है या आत्मा के पवित्र हो जाने पर यह पुण्य स्वयं छूट जाता है । 'मैं हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह आदि पापों का त्याग करता हूँ ।' इसप्रकार प्रतिज्ञा पूर्वक पाप का त्याग किया जाता है क्या इसी प्रकार प्रतिज्ञा - पूर्वक पुण्य का भी त्याग किया जाता है ? क्या किसी ने ऐसी प्रतिज्ञा की है ? क्या इस प्रकार की प्रतिज्ञा करने का किसी आर्ष ग्रन्थ में उपदेश है ? पाठकों के लिये यह सब विचारणीय है । शंका- पंचास्तिकाय गाथा १३२ में तो शुभ परिणाम को पुण्य और अशुभ परिणाम को पाप कहा है और इन दोनों को बन्ध का कारण कहा है । इस प्रकार शुभ परिणाम पुण्य का लक्षण है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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