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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १४५९ समाधान-जीव का शुभ परिणाम पुण्य है, क्योंकि पुण्य का पर्यायवाची शुभ है, ऐसा श्री यतिवृषभाचार्य व श्री वीरसेन आचार्य ने तिलोयपण्णत्ति व धवल में कहा है। जीव के शुभपरिणाम का लक्षण गाथा १३२ पंचास्तिकाय में नहीं दिया गया है। शुभ भाव का लक्षरण श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने गाथा ६४ व ६५ में इस प्रकार कहा है दव्वत्थकायछप्पणतच्चपयत्थेसु सत्तणवएसु । बंधणमुक्खे तक्कारणरूवे वारसणुवेक्खे ॥६४॥ रयणतयस्स रूवे अज्जाकम्मो वयाइसद्धम्मे । इच्चेवमाइगो जो बट्ठइ सो होइ सुहभावो ॥६५॥ अर्थ-छह द्रव्य, पंचास्तिकाय, सात तत्व, नव पदार्थ, बंध, मोक्ष, बंध के कारण, बारह भावना, रत्नत्रय, आर्य कर्म, दया आदि धर्म, इत्यादिक भावों में जो वर्तन करता है, वह शुभ भाव है। शुभ भाव से दसवें गुणस्थान तक यद्यपि कर्म-बन्ध होता है तथापि उस बन्ध से कर्म-निर्जरा अति-अधिक होती है । इसलिये शुभ भावरूप जीव पुण्य प्रात्मा की पवित्रता का कारण है। (२) जीव पुण्य उपरि उक्त पुण्य दो प्रकार का है। एक जीव पुण्य, व दूसरा अजीव पुण्य । जो जीव पुण्य-भाव अर्थात् शुभ-भाव से युक्त हो वह जीव-पुण्य है। जो पुद्गल पुण्य भाव से युक्त हो वह अजीव-पुण्य है । पुण्य का पर्यायवाची शुभ भी है । इसलिये पुण्यभाव को शुभ भाव भी कह सकते हैं । जीव तीन प्रकार के हैं-(१) बहिरात्मा, (२) अन्तरात्मा, (३) परमात्मा । मिथ्यादृष्टि बहिरात्मा है । छद्मस्थ सम्यग्दृष्टि अन्तरात्मा है । अरहन्त और सिद्ध परमात्मा हैं । इनमें से बहिरात्मा पाप-जीव हैं । अन्तरात्मा पुण्य-जीव हैं । परमात्मा पुण्य पाप से रहित हैं । 'जीविदरे कम्मचये पुण्णं पावोत्ति होदि पुण्णं तु ।' [गो० जी० गा० ६४३] श्री पं० टोडरमलजी ने इसकी भाषा टीका में लिखा है - ‘जीव पदार्थ-सम्बन्धी प्रतिपादन विषं सामान्यपनै गुणस्थान विष मिथ्यादृष्टि और सासादन एतौ पाप जीव हैं। बहुरि मिश्र है ( तीसरे मिश्र गुणस्थान-वर्ती जीव ) ते पुण्य-पापरूप मिश्र जीव हैं। जाते युगपत् सम्यक्त्व पर मिथ्यात्वरूप परिणए हैं। बहुरि असंयत तो सम्यक्त्व करि संयुक्त हैं, देशसंयत सम्यक्त्व पर देशवत करि संयुक्त हैं, पर प्रमत्तादिक सम्यक्त्व पर सकल व्रत करि संयुक्त हैं, तातै ये पुण्य जीव हैं।' स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षा गाथा १९० की संस्कृत टीका में लिखा है 'अपिशब्दाद्वा पुण्यपापरहितो जीवो भवति । कोऽसौ ? अर्हन् सिद्धपरमेष्ठी जीवः ।' इस गाथा की भाषा टीका में श्रीमान् पण्डित कैलाशचन्द्रजी ने लिखा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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