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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १४५७ 'पज्जयमूढा हि परसमया' अर्थात् जो इसप्रकार द्रव्य, गुण, पर्याय के यथार्थज्ञान से मूढ़ है अथवा मैं नारकी आदि पर्यायरूप सर्वथा नहीं हूँ । इसप्रकार भेदविज्ञान में मूढ़ है, वह वास्तव में मिथ्यादृष्टि है । I श्रतः सापेक्ष द्रव्यदृष्टि सुदृष्टि, निरपेक्ष द्रव्यदृष्टि मिध्यादृष्टि । सापेक्ष पर्यायदृष्टि सुदृष्टि, निरपेक्ष पर्यायदृष्टि मिथ्यादृष्टि । प्रवचनसार गाथा १० में कहा भी है— ' णत्थि विणा परिणाम अत्थो अत्थं विरतेह परिणामो ।' इस लोक में पर्याय के बिना पदार्थ नहीं है और पदार्थ के बिना पर्याय नहीं है । प्रदेश की अपेक्षा पदार्थ और पर्याय अपृथक् हैं । अतः सापेक्ष पर्यायदृष्टि से मोक्षमार्ग सम्भव है । - जै. ग. 8-15-22/7-71 / मुकुटलाल बुलन्दशहर पुण्य का विवेचन (१) पुण्य की व्याख्या श्री पूज्यपाद महान् आचार्य हुए हैं जिन्होंने 'समाधिशतक', 'इष्टोपदेश' जैसे ग्रन्थों की रचना की है। जिनमें एकत्व अविभक्त ग्रात्मा का कथन है । इन्हीं श्री पूज्यपाद आचार्य ने 'सर्वार्थसिद्धि' ग्रन्थ में पुण्य की व्याख्या इसप्रकार की है- 'पुनात्यात्मानं पूयतेऽनेनेति वा पुण्यम्, तत्सद्द्यादि ।' [स.सि. ६३ ] अर्थ - जो आत्मा को पवित्र करता है या जिससे श्रात्मा पवित्र होता है, वह पुण्य है । जैसे साता वेदनीय आदि । 'पुण्य' और 'मंगल' एकार्थवाची हैं । इसलिये जो मंगल के पर्यायवाची शब्द हैं वे ही पुण्य के भी पर्यायवाची शब्द हैं । श्री वीरसेन स्वामी महान आचार्य हुए हैं जिन्होंने 'धवल' व 'जयधवल' अध्यात्म ग्रन्थों की रचना की है । जिनको समझने वाले विरले ही पुरुष हैं । उन वीरसेन आचार्य ने धवल पु० १ पृ० ३१-३२ पर निम्नप्रकार से लिखा है Jain Education International 'मंगलस्यैकार्थ उच्यते, मंगलं पुण्यं पूतं पवित्रं प्रशस्त शिवं शुभ कल्याणं भद्रं सौख्यमित्येवमादीनि मंगलपर्यायवचनानि । एकार्थप्ररूपणं किमिति चेत्, यतो मंगलार्थोऽनेकशब्दाभिधेयस्ततोऽनेकेषु शास्त्रेषु नेकाभिधानं : मंगलार्थ: प्रयुक्तश्चिरन्तनाचार्यैः । सोऽयामोहेन शिष्यैः सुखेनावगम्यत इत्येकार्थ उच्यते । 'यद्येकशब्देन न जानाति ततोऽन्येनापि शब्देन ज्ञापयितव्यः' इति वचनाद्वा ।' मंगलस्य निरुक्तिरुच्यते, मलं गालयति विनाशयति घातयति वहति हन्ति विशोधयति विध्वंसयतीति मंगलम् । तन्मलं द्विविधं द्रव्यभावमलभेदात् । द्रव्यमलं द्विविधं, बाह्यमभ्यंतरं च । तत्र स्वेव रजोमलादि बाह्यम् । घन- कठिन जीव- प्रवेशनिबद्ध-प्रकृति-स्थिति- अनुभाग- प्रदेश विभक्त-ज्ञानावरणाद्यष्टविध कर्माभ्यन्तर द्रव्यमलम् । अज्ञानादर्शनादिपरिणामो भावमलम् ।' For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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