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________________ १४५६ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : अर्थ-फिर भी अध्यात्मभाषा से नयों का कथन करते हैं । नयों के दो मूल भेद हैं, एक निश्चयनय और दूसरा व्यवहारनय । निश्चयनय का विषय अभेद है और व्यवहारनय का विषय भेद है। निश्चयनय दो प्रकार का है। १. शुद्धनिश्चयनय, २. अशुद्धनिश्चयनय । उनमें से जो नय कर्मजनित रागादि विकार से रहित गुण-गुणी को अभेदरूप से ग्रहण करता है वह शुद्धनिश्चयनय है । जैसे केवलज्ञानादि स्वरूप जीव है । जो नय कर्मजनित रागादिविकारसहित गुण और गुणी को अभेदरूप से ग्रहण करता है वह अशुद्धनिश्चयनय है । जैसे मतिज्ञानादि स्वरूप जीव । व्यवहारनय दो प्रकार का है, १. सद्भूतव्यवहारनय, २. असद्भूतव्यवहारनय । एक-एक वस्तु को विषय करनेवाला सद्भूतव्यवहारनय है । भिन्न वस्तुओं को विषय करनेवाला असद्भूतव्यवहारनय है। प्रवचनसार गाथा १८९ की टीका में जो प्रात्मा को रागादि परिणामों का कर्ता और रागादि परिणामों को कर्म कहा गया है, वह एक ही वस्तु में कर्ता-कर्म के भेदरूप से कथन है अतः वह सद्भूतव्यवहारनय का कथन है। पौद गलिककर्म प्रात्मा के कर्म और आत्मा पौद्गलिककर्मों का कर्ता है, यह कथन असद्भूतव्यवहारनय का है, क्योंकि पुद्गल और आत्मा ये दो भिन्न वस्तु हैं । शुद्धनिश्चयनय का विषय तो रागादिविकारीभावों से रहित शुद्धमात्मा है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने तथा उनके टीकाकार श्री अमृतचन्द्राचार्य ने निश्चय और व्यवहार इन दो ही शब्दों का प्रयोग किया है । भेद-प्रतिभेदों का निर्देश नहीं किया है । जहाँ पर शुद्धनिश्चयनय को निश्चय कहा गया है, वहाँ पर शुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा अशुद्धनिश्चयनय को व्यवहार कह दिया गया है। जहाँ पर असद्भूतव्यवहारनय को व्यवहार कहा गया है, वहां पर असद्भूतव्यवहार की अपेक्षा सद्भूतव्यवहारनय को निश्चय कहा गया है। प्रवचनसार गाथा १८९ की टीका में 'शुद्धद्रव्य' का प्रयोजन निरुपाधि प्रात्मद्रव्य से नहीं है, क्योंकि निरुपाधि प्रात्मद्रव्य रागादिविकारीपरिणामों का कर्ता नहीं हो सकता है, किन्तु 'एकद्रव्य' से प्रयोजन है, क्योंकि रागादिपरिणाम का कर्ता व कर्म दोनों एकद्रव्य की पर्यायें हैं । 'निश्चयनय' का प्रयोजन सद्भूतव्यवहारनय है, क्योंकि एक द्रव्य में कर्ता कर्म का भेद सद्भूतव्यवहारनय का विषय है। 'व्यवहारनय' का प्रयोजन असदभूतव्यवहारनय से है, क्योंकि सोपाधि आत्मा और पौद्गलिककर्मों में अर्थात् दो भिन्न वस्तुओं में कर्ता-कर्म का सम्बन्ध बतलाना असद्भूतव्यवहार का विषय है। अशुद्धद्रव्य का प्रयोजन प्रात्मा और पुद्गल के परस्पर सम्बन्ध से है। ___ इसप्रकार प्रवचनसार गाथा १८९ की टीका का द्रव्यदृष्टि व पर्यायदृष्टि से कोई सम्बन्ध नहीं है अतः द्रव्यदृष्टि व पर्यायष्टि की चर्चा में प्रवचनसार गाथा १८९ की टीका का उल्लेख करना अप्रासंगिक है। २७ मई १९७१ के जैनसन्देश के सम्पादकीय लेख में प्रवचनसार गाथा ९४ का उल्लेख है। इस गाथा में 'जे पज्जयेसु गिरदा जीवा परसमयिगा ति णिहिट्ठा।' [ गा० ९४ पूर्वार्ध ] जो यह कहा गया है, वह एकान्त दृष्टिवालों की अपेक्षा से कथन है। जैसा कि श्री अमृतचन्द्राचार्य की टीका के 'निरर्गलैकान्तदृष्टयो' शब्दों से स्पष्ट है । सापेक्ष पर्यायदृष्टि वाला भी मिथ्यादृष्टि है, ऐसा नहीं कहा गया है । यदि द्रव्यदृष्टि भी पर्यायदृष्टि निरपेक्ष है तो वह भी मिथ्यादृष्टि है। श्री जयसेनाचार्य ने प्रवचनसार गाथा ९३ की टीका में कहा है 'पज्जयमुढा हि परसमया-यस्मावित्थंभूत द्रव्य-गुण-पर्याय परिज्ञानमूढा अथवा नारकाविपर्यायरूपो न भवाम्यह मिति भेदविज्ञानमूढाश्च परसमया मिथ्यादृष्टयो भवन्तीति ।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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