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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १४४३ चाण्डाल यदि मात्र सम्यग्दर्शनस हित होने के कारण पूजनीय हो जाता है तो जिन्होंने तीर्थंकर आदि के उपसर्ग को दूर किया तथा समवशरण में साक्षात् तीर्थंकरभगवान के दर्शन करते हैं और दिव्यध्वनि सुनते हैं ऐसे उच्चगोत्री व्यंतरदेव व देवांगनाएँ, भवनवासी देव व देवांगनाएँ, सूर्य चन्द्रमा प्रादि देव व देवांगनाएँ सम्यग्दर्शन के कारण भी पूजनीय हो जायेंगे। श्री महावीरस्वामी के जीव को शेर की पर्याय में तथा श्री पार्श्वनाथ के जीव को हाथी की पर्याय में सम्यग्दर्शन हो गया था, किन्तु किसी भी मनुष्य या देव ने शेर व हाथी की अष्टद्रव्य से पूजा नहीं की और न नमस्कार किया। राजा श्रेणिक का जीव क्षायिकसम्यग्दृष्टि तीर्थंकरप्रकृति का निरन्तर बन्ध करनेवाला प्रथम नरक में है, किन्तु कोई भी देव उस नारकी की पूजा या नमस्कार करने नहीं गया। स्वर्ग से श्री बलदेव का जीव श्रीकृष्ण के जीव को मिलने के लिये अधोलोक में गया था। यद्यपि श्रीकृष्ण का जीव सम्यग्दृष्टि है और निरन्तर तीर्थंकरप्रकृति का बन्ध कर रहा है तथापि श्री बलदेव के जीव ने न तो अष्टद्रव्य से पूजा की और न नमस्कार किया। . ये कुछ दृष्टान्त बालजनों को समझाने के लिए दिए गये हैं। कोई भी मनुष्य या तिर्यच मात्र सम्यग्दर्शन के कारण देव नहीं हो जाता है, मरकर देवगति व देवायु के उदय होने से देवपर्याय में उत्पन्न होने पर देव होगा। नैगमनय से उस मनुष्य या तिर्यंच को देव कह सकते हैं, जैसे रसोई के लिए जल लानेवाला कहता है कि रसोई बना रहा हूं, मात्र जल लाने से रसोई नहीं बन जाती। वर्तमान में जो भोजन है वह नैगमनय से विष्टा है और खेत में पड़ा हुवा विष्टारूपी खाद नैगमनय से अन्न है। यदि मात्र नैगमनय को ध्यान में रखा जावे तो भोजन करना संभव नहीं है। भोजन तो भावनिक्षेप तथा एवंभूतनय की दृष्टि से ही संभव है। अतः नय और निक्षेप को ध्यान में रखकर पार्षग्रन्थों का अर्थ समझना चाहिए । -णे. ग. 29-7-71/VII/ मुकुटलाल, बुलन्दशहर १. सत्यासत्य वचन एवं उनके भेद-प्रभेद . २. दस सत्यों में व्यवहारनय के विषय निहित हैं, अतः व्यवहार सत्य है शंका-सत्य-असत्य का क्या लक्षण है ? जैन आगमानुसार वास्तविक वचन ही क्या सत्य वचन हैं ? समाधान-मोक्षशास्त्र अध्याय ७ सूत्र १४ में असत्यवचन का लक्षण निम्नप्रकार कहा है 'असदभिधानमनतम् । अर्थ-अप्रशस्त वचन कहना असत्य है। श्री सर्वार्थसिद्धि टीका में कहा है जिससे प्राणियों को पीड़ा होती है उसे अप्रशस्त कहते हैं, भले ही वह विद्यमान पदार्थ को विषय करता हो या अविद्यमान पदार्थ को विषय करता हो। जिससे हिंसा हो वह वचन असत्य है, ऐसा निश्चय करना चाहिये ।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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