SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 580
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४४४ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : श्री तत्त्वार्थवृत्ति टीका में लिखा है- 'प्रमाद के योग से अप्रशस्त वचन कहना श्रसत्य है । प्राणियों को पीड़ाकारक वचन सत्य है । हिंसाकारक वचन सत्य है । कर्णकर्कश, हृदयनिष्ठुर, मनमें पीड़ा करनेवाला, विप्रलापयुक्त, विरोधयुक्त, प्राणियों के वध - बंधन आदि को करनेवाले, वैर उत्पन्न करनेवाले, कलह श्रादि करनेवाले, त्रास करनेवाले, गुरु आदि की अवज्ञा करनेवाले आदि वचन भी असत्य हैं । 'यह कर्तव्य है, यह हेय है, त्याज्य है ।' प्रमत्तयोग के अभाव में यथार्थ स्वरूप के कहने से इसप्रकार के अप्रशस्त वचन भी सत्य हैं । श्री अमृतचन्द्र आचार्य ने पुरुषार्थसिद्धिउपाय श्लोक ९१ से १०० तक असत्य वचन का कथन किया है, जो इस प्रकार है- अर्थ - जो कुछ भी प्रमत्तयोग से यह असत् वचन कहा जाता है उसे श्रनृत ( असत्य ) जानना चाहिये । उसके चार भेद हैं । यदिदं प्रमादयोगादसदभिधानं विधीयते किमपि । तदनुतमपि विज्ञेयं तद्भेदाः सन्ति चत्वारः ॥९१॥ अर्थ -- जिसवचन में अपने क्षेत्र, काल, भाव करके विद्यमान वस्तु निषेधी जाती है, वह प्रथम असत्य होता है, जैसे यहां देवदत्त नहीं है । स्वक्षेत्र कालभावैः सदपि हि यस्मिन्निषिद्ध्यते वस्तु । तत्प्रथममसत्यं स्यान्नास्ति यथा देवदत्तोऽत्र ॥९२॥ अर्थ - निश्चय करि जिस वचन में पर क्षेत्र, काल, भावों करके अविद्यमान वस्तु का अस्तित्व प्रगट किया जाता है वह दूसरा असत्य है । जैसे यहां पर घट है । का माना गया असदपि हि वस्तुरूपं यत्त्र, परक्षेत्त्रकालभावतः । उद्भाव्यते द्वितीयं तदनृतमस्मिन्यथास्ति घटः ॥ ९३॥ अर्थं - अपने स्वरूप से सत् वस्तु भी पररूप से कही जाती है, यह तीसरा असत्यवचन जानना चाहिए । जैसे गाय को घोड़ा कहना इसप्रकार | Jain Education International वस्तु सदपि स्वरूपात्पररूपेणाभिधीयते यस्मिन् । अनृतमिदं च तृतीयं विज्ञेयं गौरिति यथाश्चः ॥ ९४ ॥ अर्थ - यह चौथा असत्य सामान्यपने से गर्हित, सावद्य ( पाप सहित ) और श्रप्रियवचनरूप से तीन प्रकार । गर्हितमवद्यसंयुतमप्रियमपि भवति वचनरूपं यत् । सामान्येन त्रेधा मतमिदमनृतं तुरीयं तु ॥९५॥ पैशुन्यहासगर्भ कर्कशमसमञ्जसं प्रलपितं च ॥ अन्यदपि यदुत्सूत्रं तत्सर्वं गर्हितं गदितम् ॥९६॥ अर्थ-चुगली, हास्ययुक्त, कठोर, मिथ्यात्व, प्रलाप ( गप्प-शप्प ) और शास्त्रविरुद्धवचन ये सब गति ( निंद्य ) वचन कहे गये हैं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy