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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] अन्योन्याभाव सब द्रव्यों में होता है शंका- श्री पं० गोपालदासजी वरैया ने दो पुद्गलों की दो पर्यायों में अन्योन्याभाव बताया है, पुद्गल के अलावा अन्य जीवादि द्रव्यों में अन्योन्याभाव होता ही नहीं है ऐसा लिखा है। जबकि कषायपाहुड़-जयधवल प्रथमभाग पृ० २५० व २५१ पर यह अन्योन्याभाव प्रत्येक द्रव्य में बतलाया है और न मानने पर सर्वात्मकता का दोष बतलाया है । कृपया स्पष्ट करें दोनों में क्या ठीक है ? [ १४३३ समाधान -- जयधवल पु० १ पृ० २५१ पर 'अभावैकान्तपक्षेऽपि भावापह्नववादिनाम् |' का अर्थ श्री पं० फूलचन्दजी तथा श्री पं० कैलाशचन्दजी ने इसप्रकार किया है - 'एकद्रव्य की एकपर्याय का उसकी दूसरीपर्याय में जो अभाव है उसे अन्यापोह या इतरेतराभाव कहते हैं । इस इतरेतराभाव के अपलाप करने पर प्रतिनियतद्रव्य की सभी पर्यायें सर्वात्मक हो जाती हैं।' विशेषार्थ में भी लिखा है - ' आशय यह है कि इतरेतराभाव को नहीं मानने पर एक द्रव्य की विभिन्न पर्यायों में कोई भेद नहीं रहता — सब पर्याय सबरूप हो जाती है ।' धवल पु. १५ पृ. ३० पर इसी कारिका के विशेषार्थ में श्री पं० बालचंदजी ने लिखा है- 'अतएव एकद्रव्य की विभिन्न पर्यायों में परस्पर भेद को प्रकट करनेवाले अन्योन्याभाव को स्वीकार करना ही चाहिये ।' श्री अष्टसहस्री में भी कहा है- 'स्वभावान्तरात्स्वभावव्यावृत्तिरन्यापोहः । यथा वर्तमाने घट स्वभाववत्पटस्वभावस्य व्यावृत्तिः ।' इससे सिद्ध होता है कि अन्योन्याभाव सब द्रव्यों में होता है । -- जं. ग. 7-8-67/ VII / र. ला. मन्दिरस्थ प्रतिमापंचपरमेष्ठी की होती है। शंका- जिनमन्दिर में जो प्रतिमाजी विराजमान है वह प्रतिमाजी जैनसिद्धांत के अनुसार किस अवस्था की समझनी चाहिये ? समाधान -- जिनमन्दिर में जो प्रतिमा हैं वे मुख्यरूप से अरिहंत व सिद्ध अवस्था की हैं, किन्तु गौणरूप से पाँचों परमेष्ठियों की हैं, क्योंकि पाँचों परमेष्ठी पूजनीक हैं । नमस्कारमंत्र में पाँचों परमेष्ठियों को नमस्कार किया गया है । यदि यह कहा जावे कि श्राचार्यादिक तीन परमेष्ठियों ने अात्मस्वरूप को प्राप्त नहीं किया है, इसलिये उनमें देवपना नहीं आ सकता है, अतएव उनको नमस्कार करना योग्य नहीं है ? इसका उत्तर श्री वीरसेन आचार्य ने निम्न प्रकार दिया है 'देवोहि नाम त्रीणि रत्नानि स्वभेदतोऽनन्त-भेदभिन्नानि तद्विशिष्टो जीवोऽपि देवः, अन्यथाशेषजीवानामपि देवत्वापत्त ेः ततः आचार्यादयोऽपि देवा रत्नत्वयास्तित्वं प्रत्यविशेषात् ।' अर्थ - अपने-अपने भेदों से अनन्तभेदरूप रत्नत्रय ही देव हैं, श्रतएव रत्नत्रय से युक्त जीव भी देव हैं, यदि रत्नत्रय की अपेक्षा देवपना न माना जावे तो सम्पूर्ण जीवों को देवपना प्राप्त होने की प्रपत्ति श्रा जाएगी । इसलिये यह सिद्ध हुआ कि आचार्यादिक भी देव हैं, क्योंकि अरिहंतादिक से प्राचार्यादिक में रत्नत्रय के सद्भाव की अपेक्षा कोई अन्तर नहीं है । अर्थात् जिसप्रकार अरिहंत और सिद्धों के रत्नत्रय पाया जाता है, उसी प्रकार आचार्यादिक के भी रत्नत्रय का सद्भाव पाया जाता है । इसलिये प्रांशिक रत्नत्रय की अपेक्षा इनमें देवपना .. बन जाता है । - जै. ग. 1-11-65 / VII / गुलाबचंद रेमचंद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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