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________________ १४३२ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : तत्त्वार्थ श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं, इसका अर्थ यह है कि प्राप्त, आगम, पदार्थ को तत्त्वार्थ कहते हैं । यहाँ पर सम्यग्दर्शन लक्ष्य है । इसप्रकार तत्त्वार्थं श्रद्धान कहो या सच्चेदेव, गुरु, शास्त्र का श्रद्धान कहो दोनो एक ही 1 शब्द भेद है, अभिप्राय भेद नहीं है । द्रव्य में भूतभाविपर्याय विद्यमान नहीं हैं। शंका--असत् पर्याय उत्पन्न नहीं हो सकती, क्योंकि असत् का उत्पाद नहीं हो सकता । इसलिये प्रत्येक द्रव्य में उसकी सर्व पर्यायें विद्यमान रहती हैं और उनमें से एक-एक क्रम से प्रगट होती हैं और शेष पर्यायें तिरोहित रहती हैं। जैसे सिनेमा की सर्व तसवीरें रील पर विद्यमान रहती हैं, किन्तु उनमें से क्रमानुसार एक-एक तसवीर प्रगट होती रहती है और शेष तसवीरें तिरोहित रहती हैं। जिसप्रकार समस्त तसवीरों के समूह का नाम एक सिनेमा है उसीप्रकार सर्व पर्यायों के समूह का नाम द्रव्य है । - ग. 10-4-69 / V / इन्दौरीलाल समाधान—असतू द्रव्य का उत्पाद नहीं हो सकता । जितने भी जीवों की संख्या हमेशा से है, उतनी ही संख्या प्राज भी है । उसप्रमारण में एक जीवद्रव्य की वृद्धि न आज तक हुई और न होगी। क्योंकि असत् द्रव्य का उत्पाद नहीं होता । प्रत्येक द्रव्य की एक समय में वर्तमान पर्याय विद्यमान रहती है शेष पर्यायों का उस समय प्रध्वंसाभाव या प्रागभाव है अर्थात् अभाव है । द्रव्य का लक्षण सत् है और 'सत्' उत्पाद, व्यय, ध्रौव्ययुक्त है । श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने कहा भी है 'दव्यं सल्लक्खणं उप्पादव्वय ध्रुवत्तसंजुत्त' पंचास्तिकाय, गाथा १० यदि सर्व पर्यायों को सर्वथा सत् माना जाय तो उत्पाद और व्यय घटित नहीं होंगे । उत्पाद-व्यय के न होने पर सत् भी सिद्ध नहीं हो सकेगा । सत् के अभाव में द्रव्य के अभाव का प्रसंग श्रा जायगा । श्री वीरसेनाचार्य ने कहा भी है 'सव्वहा संतस्स संभवविरोहादो, सव्वहा संते, कज्जकारणभावायुववसीदो । किं चविप्पडिसेहादो ण संतस्स उप्पली । जदि अस्थि, कथं तस्सुप्पत्ती ? अह उप्पज्जइ; कथं तस्स अस्थित्तमिदि ।' [ धवल पु. १५ पृ. १८ ] । अर्थ - सर्वथा सत् की उत्पत्ति का विरोध है । सर्वथा सत् होने पर कार्य कारणभाव ही घटित नहीं होता । इसके अतिरिक्त असंगत होने से सत् की उत्पत्ति सम्भव नहीं है, क्योंकि यदि पर्याय कारण व्यापार के पूर्व में भी विद्यमान है तो फिर उसकी उत्पत्ति कैसे हो सकती है ? और यदि वह पर्याय कारण-व्यापार से उत्पन्न होती है तो फिर उसका पूर्व में विद्यमान रहना कैसे संगत कहा जावेगा ? इस वाक्य से सिद्ध है कि एक वर्तमानपर्याय विद्यमान है भावीपर्याय वर्तमान में विद्यमान नहीं है, किन्तु द्रव्य में उनरूप परिणमन करने की शक्ति है । जैसा कारण मिलेगा वैसी पर्याय उत्पन्न हो जावेगी । कहा भी है 'तदव्यपाश्रितं हि तद्भावभावित्वम् ||३|५९॥' अर्थ – उस कारण के सद्भाव में उस पर्याय का होना कारण के व्यापार के आधीन है । Jain Education International For Private & Personal Use Only - बॅ. ग. 26-12-66 / VII / देवकुमार www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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