SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 570
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४३४ ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : द्रव्य पूजा-विधान आगमोक्त है शंका-क्या शास्त्रों में द्रव्यपूजा का कथन नहीं है ? समाधान-द्रव्यपूजा का सविस्तार कथन आर्षग्रंथों में पाया जाता है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने भी द्रव्यपूजा का कथन किया है। उसहादि जिणवराणं णामणित्ति गुणाणुकित्ति च । काऊण अच्चिदूण य तिसुद्धि पणमो थवो रोओ ॥१-२६॥ मूलाचार श्री वसुनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्ती प्राचार्यकृत संस्कृतटीका 'अच्चिदूण य अर्चयित्वा च गन्धपुष्पधूपादिभिः प्रासुकैरानीतैदिव्यरूपैश्च विव्यनिराकृतमलपटलसुगन्धेश्चतुविशतितीर्थकरपदयुगलानामर्चनं कृत्वा ।' अर्थात्-लाये हुए प्रासुक गंध पुष्प धूपादिकों से जिनेश्वरों के चरणों को पूजना चाहिए । अब्भुदाणं अंजलि आसणवाणं च अतिहिपूजा य । लोगाणुवित्ति विणो देवदपूयासविहवेण ॥७-९३॥ आचार्य वसुनन्दि कृत टीका—'स्त्रविभवेन स्ववित्तानुसारेणदेवपूजा।' अर्थात्-अपने वित्त के अनुसार देव पूजा करना । इसके पश्चात् श्री सोमदेव आदि प्राचार्यों ने द्रध्यपूजा का विशद विवेचन किया। -. ग. 26-10-67/VII/ पूर्णचंद्र एडवोकेट शूद्रमुक्ति / स्त्रीमुक्ति __ शंका-आगम में मनुष्य के सम्पूर्ण कुल और योनियों में चौदहों गुणस्थानों की योग्यता प्रतिपादित की है तो क्या शूद्रमुक्ति और स्त्रीमुक्ति सम्भव है ? स्पष्ट करें। समाधान-शूद्र व स्त्रियों की कुलसंख्या तथा योनि पृथक् नहीं है। जो मनुष्यों के कुल व योनि हैं वह शद्रों व स्त्रियों की भी हैं । अतः सम्पूर्ण मनुष्य कुलों व योनियों के मोक्ष कहने से शूद्र अर्थात् नीच गोत्री व स्त्री अर्थात् महिला ( द्रव्यस्त्री ) को मुक्ति सिद्ध नहीं होती। नीच गोत्र वाले के पांचवाँ गुणस्थान तक हो सकता है, क्योंकि उससे ऊपर के छठे आदि गुणस्थानों में नीचगोत्र का उदय नहीं है। द्रव्यस्त्री ( महिला) के भी सवस्त्र होने के कारण पंचम गुणस्थान से अधिक नहीं हो सकता। -गै.सं. 28-6-56/VI/र. ला. गैन, केकड़ी चरणानुयोग | अनगार चरित्र / निश्चल चित्त बनाने का उपाय शंका-चित्त की निश्चल अवस्था कैसे प्राप्त हो ? समाधान-निश्चल रहना तो चित्त का स्वभाव है। उस निश्चलता का घातक जो कर्म है उस कर्म का क्षय करने से चित्त की निश्चल अवस्था स्वयमेव हो जावेगी। प्रवचनसार गाथा ७ की टीका में कहा भी है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy