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________________ १४२६ ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : श्री गुणधराचार्य विरचित कषायपाहुड़ में निम्न गाथा पायी है सम्मत्तपढमलंभस्सऽणंतरं पच्छदो य मिच्छत्त। लंभस्स अपढमस्सदु भजियव्वो पच्छदो होदि ॥१०॥ शब्दकोष के अनुसार विद्वानों ने इस गाथा का अर्थ निम्नप्रकार किया है 'सम्यक्त्व की प्रथमबार प्राप्ति के अनन्तर पश्चात् मिथ्यात्व का उदय होता है। किन्तु अप्रथमबार सम्यक्त्व की प्राप्ति के पश्चात् वह भजितव्य है।' यद्यपि शब्दकोष अनुसार यह अर्थ ठीक है, किन्तु सिद्धांत से यह अर्थ बाधित होता है; क्योंकि अनादि मिथ्याष्टि भी प्रथमबार सम्यक्त्व को प्राप्तकर मिथ्यात्व को न भी प्राप्त हो, किन्तु क्षयोपशमसम्यक्त्व को प्राप्त होकर द्वितीयोपशम को प्राप्त कर लेवे। उपर्युक्त गाथा में 'पढम' का अर्थ 'प्रथमोपशम' और 'अपढम' का अर्थ 'क्षयोपशम' तथा 'अणंतरं पच्छदो' का अर्थ 'अनंतर पूर्व' करना होगा जो किसी भी शब्द-कोष में नहीं मिलेगा। इन शब्दों का ऐसा अर्थ करने से गाथा का अर्थ इस प्रकार हो जाता है—'प्रथमोपशमसम्यक्त्व की प्राप्ति से अनंतर पूर्व मिथ्यात्व नियम से होता है, किंतु क्षयोपशमसम्यक्त्व की प्राप्ति से पूर्व मिथ्यात्व भजितव्य है अर्थात् मिथ्यात्व हो भी और न भी हो । 'सामण्ण' अर्थात् सामान्य शब्द का अर्थ कोष में 'समान या साधारण' दिया है। किसी भी कोष में 'सामान्य' का अर्थ 'प्रात्मपदार्थ' नहीं दिया गया है किन्तु 'जं सामण्णग्गहणं' में 'सामान्य' शब्द का प्रयोग 'आत्मपदार्थ' के लिये किया गया है। इन उदाहरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि शब्दों का अर्थ इसप्रकार होना चाहिए जिससे सिद्धान्त खण्डित न होता हो, अपितु सिद्धान्त के अनुकूल हो। सम्यग्दर्शन का अन्तरंग साधन दर्शनमोहनीयरूप द्रव्यकर्म का उपशम, क्षय या क्षयोपशम है । दर्शनमोडतीयध्यकर्म तीन प्रकार का है--सम्यक्त्वप्रकृति, मिथ्यात्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति । दर्शनमोहनीय व्यकर्म की इन तीनों प्रकृतियों के उपशम होने पर आत्मा में उपशम-सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है, और इन तीनों प्रकृतियों के क्षय होने पर आत्मा में क्षायिकसम्यग्दर्शन प्रगट होता है, तथा इनके क्षयोपशम अर्थात् मिथ्यात्व प्रकतिरूप द्रव्यमोह और सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिरूप द्रव्यमोह इनके स्वमुख अनुदय होने पर और सम्यक्त्वप्रकृतिरूप द्रव्यमोह के उदय होने पर प्रात्मा में क्षयोपशमसम्यग्दर्शन की उत्पत्ति होती है। यदि मिथ्यात्वप्रकृतिरूप द्रव्यमोह या सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिरूप द्रव्यमोह का स्वमुख उदय हो तो प्रात्मा में सम्यग्दर्शनगुण प्रकट नहीं हो सकता। यह दिगम्बर जैनधर्म का मूल सिद्धान्त है। श्री जयसेनाचार्य ने प्रवचनसारादि ग्रन्थों की टीका में मोह, राग-द्वेष इन तीन शब्दों का प्रयोग किया है। इनमें से मोहशब्द का प्रयोग मिथ्यात्वभाव के लिये और राग-द्वेष शब्द का प्रयोग कषाय व नोकषायरूप भावों के लिये हुआ है। प्रवचनसार गाथा ४५ की टीका के 'द्रव्यमोहोदयेऽपि सति यदि शुद्धात्मभावनाबलेन भावमोहेन न परिणमति ।' इन शब्दों के अर्थ पर विचार करना है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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