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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १४२७ द्रव्यमोह तीनप्रकार का है मिध्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व | 'द्रव्यमोहोदय' का अर्थ 'मिथ्यात्व - प्रकृतिरूप द्रव्यमोह' तो किया नहीं जा सकता, क्योंकि इसके उदय में जीव मिथ्यादृष्टि होता है तथा सर्वज्ञप्रणीत मार्ग से विमुख, तत्त्वार्थों के श्रद्धान करने में निरुत्सुक, हिताहित के विचार करने में असमर्थ होता है । अथवा आप्त आगम और पदार्थों में श्रश्रद्धा को उत्पन्न करनेवाला कर्म मिथ्यात्वकर्म कहलाता है । अत: मिथ्यात्वप्रकृतिरूप द्रव्यमोह का तो उदय हो और जीव भावमोह अर्थात् मिथ्यात्वभावरूप न परिणमे ऐसा मानने से सिद्धांत से विरोध आता है । 'द्रव्य - मोहोदय' का अर्थ 'सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिरूप द्रव्य मोह' भी नहीं किया जा सकता, इसके उदय में जीव के सम्यक्त्व और मिथ्यात्व इन दोनों के संयोगरूप भाव होते हैं। कहा भी है 'सम्मत-मिच्छत्तभावाणं संजोगसमुद्गदभावस्स उत्पापयं कम्मं समत्तमिच्छतंणाम ।' अतः सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिरूप द्रव्यमोह के उदय होने पर जीव भावमोह ( मिथ्यात्वभाव) रूप न परिणमे ऐसा मानने पर भी सिद्धांत से विरोध प्राता है, क्योंकि सम्यग्मिथ्यात्व के उदय में सम्यक्त्व के साथ मिथ्यात्वभाव भी होते हैं । अत: पारिशेषन्याय से 'द्रव्यमोहोदये' का अर्थ 'सम्यक्त्व प्रकृतिरूप द्रव्यमोह' होता है । जिसके उदय होने पर मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्वरूप द्रव्यमोह स्वमुख से स्वरसरूप उदय में नहीं आते हैं इसलिए आत्मा भावमोह अर्थात् मिथ्यात्वरूप नहीं परिणमता है । यह सम्यक्त्वप्रकृतिरूप द्रव्यकर्म सम्यक्त्व का सहकारी है इसीलिए इसका नाम: सम्यक्त्वप्रकृति कर्म रखा गया है । बंध की अपेक्षा से दर्शनमोहनीयकर्म मिथ्यात्वरूप एक ही प्रकार का है, किन्तु सम्यक्त्व परिणाम के द्वारा अथवा करणलब्धि के द्वारा उस मिथ्यात्वरूप द्रव्यकर्म के तीन टुकड़े हो जाते हैं । उनमें सम्यक्त्वप्रकृति द्रव्यमोह तत्त्वार्थश्रद्धानरूप वेदकसम्यक्त्वरूप ग्रात्मपरिणामों को नष्ट करने में समर्थ नहीं है, जैसे मन्त्रों द्वारा निर्विष किया हुआ विष मारनेवाला नहीं होता है । कहा भी है- 'सम्यक्त्व प्रकृतिस्तु कर्मविशेषोभवति तथापि यथा निर्विषीकृतं विषं मरणं न करोति तथा शुद्धात्माभिमुखपरिणामेन मंत्रस्थानीय विशुद्ध विशेषमात्रेण विनाशितमिथ्यात्वशक्तिः यत् क्षायोपशमिका दिलब्धिपं च कजनितप्रथमोपशमिक सम्यक्त्वानं तरोत्पन्नवेदक सम्यक्त्वस्वभावं तत्त्वार्थश्रद्धानरूपं जीवपरिणामं न हंति तेनकारणेनोपचारेण सम्यक्त्वहेतुत्वात्कर्मविशेषोऽपि सम्यक्त्वं भव्यते ।' अजमेर का समयसार पृ. ३०१ यदि 'द्रव्यमहोदय' का अर्थ ' चारित्रमोहनीय द्रव्यकर्म के उदय करके यह कहा जाय कि चारित्रमोहनीय कर्मोदय होते हुए भी जीव भावमोह अर्थात् रागद्वेषरूप न परिणमे तो भी सिद्धांत से विरोध आता है, क्योंकि चारित्रमोहनीय कर्म का उदय दसवेंगुणस्थानतक रहता है और दसवेंगुणस्थान में भी जीव के सूक्ष्मसांपराय अर्थात् सूक्ष्मलोभ या भावरागरूप परिणाम अबुद्धिपूर्वक होते हैं । यदि कोई भी सज्जन प्रवचनसार गाथा ४५ टीका के उक्त वाक्यों का अन्यप्रकार से ऐसा अर्थ करे जिससे सिद्धांत बाधित नहीं हो तो उस अर्थ का सहर्ष स्वागत किया जायगा और यथासम्भव इस अर्थ में सुधार भी कर दिया जायगा । प्रवचनसार में प्रदेस की अनेक अशुद्धियाँ रह गई हैं जिनका शुद्धि-पत्र बनाकर श्री पं० अजितकुमारजी अनुवादक व सम्पादक महोदय के पास भेजा भी गया था, किन्तु पंडितजी का अचानक स्वर्गवास हो जाने के कारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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