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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १४२५ 'श्री बद्रीप्रसादजी सरावगी पटना ने द्रव्य सहायता दी है तथा श्री रतनचन्दजी मुख्तार सहारनपुर ने विषयसूचि, विशेष-शब्द-सूची आदि बनाई है। श्री पं० सरनारामजी ने हिन्दी अनुवाद में अनेक सुझाव दिये हैं और स्वर्गीय पं० अजितकुमारजी ने इसके सम्पादन का कार्य अपने हाथ में लिया था। अतः मैं इन सबका आभारी हूँ।' जैनसन्देश में प्रवचनसार सम्बन्धी जो लेख प्रकाशित हुए हैं वे मात्र ईर्ष्या भाव को लेकर लिखे गये हैं, इसीलिये उन लेखों के प्रतिवाद की कोई आवश्यकता नहीं समझी गई। यदि ईर्ष्याभाव से न लिखे जाते तो जहाँ कहीं अशुद्धि थी तो उसके स्थान पर शुद्ध पाठ क्या होना चाहिए, ऐसा भी उल्लेख उन लेखों में होना चाहिए था। धवल, जयधवल, महाबंध, सर्वार्थसिद्धि आदि ग्रन्थों में जहाँ-जहाँ पर अनुवाद आदि में अशुद्धपाठ मिला उसके स्थान पर शुद्धपाठ क्या होना चाहिए उसका सुझाव भी दिया जाता जिससे स्वाध्याय प्रेमी व सम्पादक उस पर विचार कर सकते। कहीं कहीं पर माना कि शब्दों का अनुवाद कर देने से सिद्धांत से विरोध आ जाता है, इसलिए इसप्रकार अनुवाद लिखा जाता है जिससे सिद्धांत से विरोध न आये । जैसे तत्त्वार्थसूत्र दूसरे अध्याय में सूत्र ५१ है 'न देवाः।' इसका शब्दानुवाद होता है 'देव नहीं होते हैं ।' किन्तु ऐसा अर्थ करने से सिद्धांत से विरोध आता है अतः शब्दानुवाद न करके इसका अर्थ किया जाता है। 'देवों में नपुंसक वेद नहीं होता है।' यह अर्थ सिद्धांत के अविरुद्ध है। ___इतना ही नहीं, कहीं-कहीं पर शब्द का अन्यथा भी अर्थ करना पड़ता है, क्योंकि शब्दकोष के अनुसार अर्थ करने पर सिद्धांत से विरोध आता है। श्री कन्दकन्दाचार्य की बारस अणुवेक्खा में निम्न गाथा पाई है सव्वे वि पोग्गला खलु एगे भुत्तुझिया हु जीवेण । असई अणंतखुत्तो पोग्गलपरियटससारे ॥ श्री पं० उग्रसैन जैन एम० ए० एल० एल० बी० द्वारा इस गाथा का अर्थ निम्नप्रकार किया गया है 'पुद्गलपरावर्तनरूप संसार में इस एक जीव ने सम्पूर्ण पुद्गलवर्गणाओं को निश्चय से बार बार (अनंतबार) ग्रहण कर और भोगकर छोड़ा है। श्री पं० फूलचन्दजी ने इस गाथा का अर्थ इसप्रकार किया है-'इस जीव ने सभी पुद्गलों को क्रम से भोगकर छोड़ दिया और इसप्रकार यह जीव अनन्तबार पुद्गलपरिवर्तनरूप संसार में घूमता रहता है।' अन्य विद्वानों द्वारा भी इसका अर्थ यह किया गया है---'इस पुद्गलपरिवर्तनरूप संसार में समस्त पुद्गल इस जीव ने एक एक करके पुनः पुनः अनन्तबार भोग कर छोड़े हैं।' प्रायः सभी विद्वानों ने 'सव्व' शब्द का अर्थ कोष के अनुसार 'समस्त' 'सम्पूर्ण' 'सभी' आदि किया है जो सिद्धांत सम्मत नहीं है, क्योंकि आज तक समस्त जीवों द्वारा भी सम्पूर्ण पुद्गल द्रव्य नहीं भोगा गया है। समस्त जीवों द्वारा भूतकाल में जो पुद्गलद्रव्य भोगा गया है उसका प्रमाण समस्त जीवराशि गुरिणत भूतकाल के समय गणित एकसमयप्रबद्ध अर्थात अनन्त से भाजित समस्त जीवराशि का वर्ग। इसको गणित में इसप्रकार लिख सकते हैं समस्त जीव' : अनन्त । सम्पूर्ण पुद्गल द्रव्य का प्रमाण है-समस्तजीवराशि गुणित समस्तजीवराशि गणित अनन्त अर्थात् अनन्त से गुणित समस्तजीवराशि का वर्ग अथवा अनन्त x (समस्त जीव ) इससे ज्ञात होता है कि समस्त जीवों द्वारा भी भूतकाल में आज तक पुद्गलद्रव्य का मात्र अनन्तवाँभाग भोगा गया है। अतः उपर्युक्त गाथा में पुद्गलद्रव्य के एकदेश के लिए 'सव्व' शब्द का प्रयोग हुआ है। [धवल ४१३२६] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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