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________________ १४१० ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : इसप्रकार सोनगढ़ वाले पार्षग्रन्थों के प्रमाणों की अवहेलना करके जिन-सिद्धांत विरुद्ध नये सिद्धान्त का प्रचार कर रहे हैं। प्राचार्यरचित ग्रन्थों की टीका में उन सिद्धांतों को लिख दिया है जो दि० जैन सिद्धांत के अनुकूल नहीं हैं और यह साहित्य दि० जैन धर्म पर एकप्रकार का कलंक है। इसी साहित्य के कारण अजनों को जैनधर्म के विषय में नाना शंकायें उत्पन्न होने लगी हैं। उपर्युक्त शंका इसका एक उदाहरण है। जैनधर्म में दया का सर्वत्र उपदेश है और दया को मोक्ष का कारण माना गया है । दया पुण्यभाव भी है, क्योंकि यह आत्मा को पवित्र करती है। "पुनात्यात्मानं पूयतेऽनेनेति वा पुण्यम्" ( स. सिद्धि ६३ ) अर्थ-जो प्रात्मा को पवित्र करता है या जिससे आत्मा पवित्र होता है वह पुण्य है । 'दयाधर्म है', इसलिये कहा गया है कि दया जीव को संसार दुःखों से निकालकर मोक्षसुख में धरती है। श्री समन्तभद्राचार्य ने धर्म का लक्षण इसप्रकार कहा है "संसारदुःखतः सत्त्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे ।" अर्थात्-जो जीवों को संसार के दुःखों से निकालकर उत्तमसुख में पहुँचाता है वह धर्म है। जिन भाइयों ने सोनगढ़साहित्य को पढ़कर 'दयाधर्म है', ऐसा मानना छोड़ दिया हो उनसे प्रार्थना है कि वे उपर्युक्त आर्षवाक्यों के अनुकूल अपनी यथार्थ श्रद्धा बनाने की कृपा करें। जिसप्रकार मोक्षशास्त्र अध्याय ६ में सम्यक्त्व को बंध का कारण कहा गया है उसीप्रकार यदि करुणा को भी बंध का कारण कह दिया गया हो तो उसका यह अभिप्राय है कि करुणा तो जीव स्वभाव होने से बंध का कारण नहीं है, किन्तु निचलीअवस्था में उसके साथ जो रागांश हैं वह पूण्यबंध का कारण है। करुणा अर्थात् जीवरक्षा संयम है और संयम बंध का कारण नहीं है वह संदर-निर्जरा का कारण है। दिगम्बरेतर-समाज में जीवदया को धर्म नहीं माना गया, उसीके संस्कारवश सोनगढ़-मोक्षशास्त्र में क्त वाक्य लिखे गये हैं जिससे एक अजैन को यह लिखना पड़ा कि जिन भगवान ने दया का उपदेश नहीं दिया। इसप्रकार के साहित्य के लिये ही महासभा ने बहिष्कार का निर्णय लिया है। -जें. ग. 21-1-65/VIII/ वी. पी. शर्मा वानर | वनमानुष शंका-वानर, वनमानुष आदि तिर्यञ्च हैं या मनुष्य ? इनके नाम से और आकार आदि से तो इनमें मनुष्यत्व सिद्ध होता है । सप्रमाण बताइये । समाधान-म० पु०८/२३०-२३३ में वानर को तिर्यञ्च कहा है। वानर और मनुष्य के आकार में भी अन्तर है। वानर को किसी भी प्रकार से मनुष्य कहना उचित नहीं है। वनमानुष मनुष्य होते हैं, किन्तु वन में रहने के कारण नागरिक मनुष्यों जैसे नहीं होते हैं। उनकी बोलचाल, रहनसहन के ढंग आदि में विशेष अन्तर होता है जैसे किसी मनुष्य के बच्चे को भेडिया उठाकर ले जावे और उसको पाल ले तो उस बच्चे की बोलचाल. रहन-सहन प्रादि सब भेडिया जैसी होती है। -जं. सं. 28-6-56/VI/र. ला. गैन, केकड़ी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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