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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [१४०९ सूनृतं करुणाकान्तमविरुद्धमनाकुलम् । अग्राम्यं गौरवाश्लिष्टं वचः शास्त्रे प्रशस्यते ॥९॥५॥ (ज्ञानार्णव) अर्थ-जो वचन सत्य हों, करुणा से व्याप्त हों वे ही वचन प्रशंसनीय हैं। ध्याने ह्य परते धीमान् मनःकुर्यात्समाहितम् । निर्वेदपदमापन्नं मग्नं वा करुणाम्बुधौ ॥१९॥ ज्ञानार्णव सर्ग ३१ अर्थ-ध्यान को पूर्ण होने पर धीमान् पुरुष मन को सावधानरूप वैराग्यपद को प्राप्त करें अथवा करुणारूपी समुद्र में मग्न करें। गुत्ती जोग-निरोहो समिदी यं पमाद-वज्जणं चेव । धम्मो वयापहाणो सुतत्तचिता अणुप्पेहा ॥९७॥ स्वामि. का. संवरानुप्रेक्षा अर्थात्-दयाप्रधानधर्म संवर का कारण है । श्री वीरसेनाचार्य धवल अध्यात्मग्रन्थ में करुणा को जीवस्वभाव कहते हैं । "करणाए कारणं कम्मं करुणे त्ति किण युतं? ण, करुणाए जीवसहावस्स कम्मजणिवत्तविरोहादो। अकरणाए कारणं कम्मं वत्तव्वं ? ण एस दोसो, संजमघादिकम्माणं फल भावेण तिस्से अब्भुवगमादो।" (ध. पु. १३ पृ. ३६१-३६२ ) अर्थ- करुणा का कारणभूत कर्म करुणाकर्म है, यह क्यों नहीं कहा ? नहीं, क्योंकि करुणा जीवस्वभाव है, उस करुणा को कर्मजनित मानने में विरोध प्राता है। तो फिर अकरुणा का कारण कर्म कहना चाहिये ? . यह कोई दोष नहीं, क्योंकि अकरुणा संयमघाती ( चारित्रमोहनीय ) कर्म का फल है। धवल के उपर्युक्त कथन से तथा पद्मनन्दिपंचविंशति श्लोक १९६ से स्पष्ट है कि जीवदया संयम है और संयम प्रात्मस्वभाव तथा संवर-निर्जरारूप है । मनुष्यपर्याय की सफलता संयम से है। दशलक्षण पूजन में भी जीवदया को संयम कहा है काय छहों प्रतिपाल, पंचेन्द्रिय मन वश करो। संजम रत्न संभाल, विषय चोर बहु फिरत हैं । तत्त्वचर्चा में जब पार्षग्रन्थों के प्रमाण दिये गये तो सोनगढ़ वालों ने इसका निम्नप्रकार उत्तर दिया है जो विशेष विचारणीय है। "शास्त्रों के उपयुक्त प्रमाण उपस्थित कर यह सिद्ध करने की चेष्टा की गई है कि जीवदया को धर्म मानना मिथ्यात्व नहीं है। इसमें सन्देह नहीं कि उनमें कुछ ऐसे भी प्रमाण हैं जिनमें संवर के कारणों में दया का अन्तर्भाव हुआ है। ऐसे ही यहाँ जो अनेक प्रमाण संग्रह किये गये हैं उनके विविध प्रयोजन बतलाकर उनके द्वारा पर्यायांतर में दया को पुण्य और धर्म उभयरूप सिद्ध किया है। ये सब प्रमाण तो लगभग बीस ही हैं। यदि पुरे जिनागम में से ऐसे प्रमाणों का संग्रह किया जाय तो एक स्वतन्त्र विशालग्रन्थ हो जाय। पर इन प्रमाणात से क्या पुण्यभावरूप दया को इतने मात्र से मोक्ष का कारण माना जा सकता है।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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