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________________ १४०८ ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार । यत्स्याप्रमादयोगेन प्राणिषु प्राणहायनम् । सा हिंसा रक्षणं तेषामहिसां तु सतां मता ॥३१८॥ एका जीवदयैकन परत्र सकलाः क्रियाः। परं फलं तू सर्वत्र कृषेश्चिन्तामरिव ॥३६१॥ उपासकाध्ययन अर्थ-प्रमाद के योग से प्राणियों के प्राणों का घात करना हिंसा है और उनकी रक्षा करना अहिंसा है ॥३१८॥ अर्थ-अकेली जीव दया एक अोर है और बाकी की सब क्रियाएँ दूसरी ओर हैं। अर्थात् अन्य सब क्रियानों से जीवदया श्रेष्ठ है। अन्य सब क्रियाओं का फल खेती की तरह है और जीवदया का फल चितामणि के समान है ॥३६॥ 'धर्म शर्मकरं दयागुणमयं' ॥७॥ आत्मानुशासन अर्थात्-दयामयी धर्म सुख करने वाला है। दयादमत्यागसमाधिसंततेः पथि प्रयाहि प्रगुणं प्रयत्नवान् । नयत्यवश्यं वचसामगोचरं, विकल्पदूरं परमं किमप्यसौ ॥१०७॥ आत्मानु० अर्थ-हे भव्य ! तू प्रयत्न करके सरलभाव से दया, इंद्रियदमन, दान और ध्यान की परम्परा के मार्ग में प्रवृत्त हो। वह मार्ग निश्चय से किसी ऐसे मोक्ष को प्राप्त कराता है जो वचनातीत है और समस्त विकल्पों से रहित है। धर्मोनाम कृपामूलं सा तु जीवानुकम्पना । अशरव्यशरण्यत्वमतो धार्मिक-लक्षणम् ॥५॥३५॥ क्षत्रचूड़ामणि अर्थ-धर्म का मूल दया है और वह दया जीवों की अनुकम्पारूप है। प्ररक्षितप्राणियों की रक्षा करना ही धर्मात्मा का लक्षण है। सम्मतस्स पहाणो अणुकंवा वणिओ गुणो जम्हा । पारद्धिरमणसीलो सम्मत्तनिराहओ तम्हा ॥९४॥ वसु० श्रावकाचार अर्थ-सम्यग्दर्शन का प्रधानगुण अनुकम्पा अर्थात् दया है, अतः शिकार खेलनेवाला मनुष्य सम्यग्दर्शन का विराधक होता है। पवित्रीक्रियते येन येनवोद्रियते जगत् । नमस्तस्मै दयाय धर्मकल्पांघ्रिपायवै ॥१॥ (ज्ञानार्णव/धर्मभावना) ___ अर्थ-जिसधर्म से जगत् पवित्र किया जाता है, तथा उद्धार किया जाता है और जो धर्म दयारूपी रससे पादित (गीला) और हरा है उस धर्मरूपी कल्पवृक्ष के लिये मेरा नमस्कार है। तन्नास्ति जीवलोके जिनेन्द्रदेवेन्द्रचक्रकल्याणम् । यत्प्राप्नुवन्ति मनुजा न जीवरक्षानुरागेण ॥५७॥ ज्ञानार्णव सर्ग ८ अर्थ-इस जगत में जीवरक्षा के अनुराग से मनुष्य कल्याणरूप पद को प्राप्त होता है। जिनेन्द्र, देवेन्द्र, चक्रवर्ती आदि ऐसा कोई भी कल्याणपद नहीं है जो दयावान नहीं पाते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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