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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १४०७ अर्थ-जिनभगवान के दयालुतारूप अमृत से परिपूर्ण उपदेश से जिन श्रावकों के हृदय में प्राणिदया प्रगट नहीं होती है उनके धर्म कहाँ से हो सकता है । अर्थात् नहीं हो सकता ? इसका अभिप्राय यह है कि जिनगृहस्थों का हृदय जिनागम का अभ्यास करने के कारण दया से श्रोत-प्रोत हो चुका है वे ही गृहस्थ वास्तव में धर्मात्मा हैं । जिनका चित्त दया से श्रार्द्र नहीं हुआ है वे कभी भी धर्मात्मा नहीं हो सकते, कारण कि धर्म का मूल दया है ।। ६।३७ ।। तो प्राणिदया धर्मरूपी वृक्ष की जड़ है, व्रतों में मुख्य है, सम्पत्तियों का स्थान है और गुणों का भण्डार है । इसलिये विवेकी जीवों को प्राणिदया अवश्य करनी चाहिये || ६ |३८|| मनुष्यों में सब ही गुण जीव दया के ग्राश्रय से इसप्रकार रहते हैं जिसप्रकार पुष्पों की लड़ियाँ सूत के श्राश्रय से रहती हैं । अर्थात् सम्यग्दर्शन आदि गुणों के अभिलाषी श्रावक को प्राणियों के विषय में दयालु अवश्य होना चाहिए । णिज्जिय-दोसं देवं सब्व-जिवाणं दयावरं धम्मं । वज्जिय- गंथं च गुरु ं जो मण्णदि सो हु सद्दिट्ठी ॥३१७॥ स्वा. का. अ. अर्थ- जो दोषरहित को देव श्रौर सब जीवों पर दया को उत्कृष्टधर्म तथा परिग्रहरहित को गुरु मानता है वही सम्यग्दृष्टि है अर्थात् जो जीवदया को धर्म नहीं मानता वह सम्यग्दृष्टि नहीं है । हिंसा पावं त्ति मदो दया पहाणी जदो धम्मो ||४०६ ॥ स्वा. का. अर्थ - हिंसा पाप है और धर्म दयाप्रधान है । दया भावो विय धम्मो हिंसाभावो ण भण्णदे धम्मो । इदि संदेहाभावो निस्संका णिम्मला होदी ||४१५॥ स्वा. का. अर्थ - दयाभाव धर्म है हिंसाभाव धर्म नहीं है जिसको इसमें सन्देह नहीं है उसीका निर्मल निःशंकित सम्यग्दर्शन होता है । धम्मो वत्सहावो खमादिभावो य दसविहो धम्मो । रयणत्तयं च धम्मो जीवाणं रक्खणं धम्मो ||४७८ ॥ स्वा. का. अर्थ —-वस्तु का स्वभाव धर्म है, क्षमादि दसभाव धर्म हैं, रत्नत्रयधर्म है, और जीवों की रक्षा धर्म है । मोहमयगावहिं यमुक्का जे करुणभाव संजुत्ता । ते सव्व दुरियखं मं हति चारित्तखग्गेण ॥ १५९ ॥ भावपाहुड़ अर्थ- जो मुनि मोह, मद, गौरव इनिकरि रहित है और करुणा भावकरि सहित है चारित्ररूपी खड्गकरि पापरूपी स्तंभ है ताहि हणे है । Jain Education International सो धम्मो जत्थ दया सोवि तवो विसयणिग्गहो जत्थ । दस अट्ठदोस रहिओ सो देवो णत्थि संदेहो || नियमसार गाथा ६ की टीका अर्थ - वह धर्म है जहाँ दया है, इसमें संदेह नहीं है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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