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________________ १३९२ ] अरिहंत या अरहंत; दोनों ठीक हैं शंका- 'णमो अरिहंताणं' पद के विषय में 'भूवलय' ग्रन्थ में बताया गया है कि-मंगल की आदि में शत्रुवाची ( अरि ) अमंगल शब्दों का प्रयोग ठीक नहीं अतः 'अरहंताणं' पाठ ज्यादा उचित है। प्राचीन ग्रन्थों में भी 'अरहंताण' पाठ ही पाया जाता है, किन्तु धवला में 'अरिहंताण' पाठ दिया गया है ऐसी हालत में 'भूवलय' की युक्ति कहाँ तक ठीक है ? समाधान — 'भूवलय' ग्रन्थ मेरे पास नहीं है और न वह मेरे देखने में आया है । 'अरिहंत' व 'अरहंत' के अर्थ में अन्तर नहीं है । स्वयं धवलटीका में 'अरिहंत' के तीन अर्थ किये गये हैं। 'अरि' ( मोहनीय कर्म ) अथवा 'रज' ( ज्ञानावरण, दर्शनावरण व मोहनीयकर्मो ) अथवा 'रहस्य' ( अंतरायकर्म ) के नाश से तथा ( सातिशयपूजा के योग्य होने से ) 'अर्हन्' होने से 'अरिहंत' हैं ( ष० खं० पु० १ पृ० ४२-४४ ) । मूलाचार में भी ' अहंत' पद का इसीप्रकार निरुक्ति द्वारा अर्थ किया है [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : 'अरिहंति णमोकार अरिहा पूजा सुरुत्तमा लोए । रजहंता अरिहंति स अरहंतो तेण उच्चंदे ॥४॥ अर्थ - श्रहंत परमेष्ठी नमस्कार के योग्य होने से उनको अर्हत् कहते हैं । वे पूजा के योग्य हैं श्रतः श्रर्हत हैं । 'रजस्' का ( ज्ञानावरण और दर्शनावरण का ) उन्होंने नाश किया है अतः वे श्रहंत हैं । 'अरि' ( मोह का और अन्तराय का हन्ता - नाश करनेवाले होने से वे अहंत । ऐसे कारणों से वे ऐसी अवस्था को प्रर्हत्पदवी को प्राप्त हुए हैं अतः वे अहंत - सर्वज्ञ हैं, सर्वलोकों के - त्रैलोक्य के नाथ हैं ऐसे उनका स्वरूप कहा जाता है । 'अरिहंत' व 'अरहंत' दोनों शब्दों के अर्थ में अन्तर न होने से दोनों में से किसी एक शब्द के लिखने में कोई बाधा प्रतीत नहीं होती । - जै. सं. 6-3-58 / VI / र. ला. कटारिया, केकड़ी णमोकार मंत्र का उच्चारण काल ३ उच्छ्वास शंका - णमोकार मंत्र का उच्चारण क्या तीन श्वास जितने काल में करना चाहिये ? समाधान - णमोकार मंत्र यद्यपि गाथारूप है तथापि इसका उच्चारण तीनउच्छ्वास काल में होना चाहिए । णमोकार मंत्र की गाथा निम्नप्रकार है Jain Education International णमो अरिहंताणं णमोसिद्धाणं णमोआइरियाणं । णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं ॥१॥ ध. पु. १ पृ. ८ अर्थ - लोक में सर्वप्ररिहंतों को नमस्कार हो, लोक में सर्वसिद्धों को नमस्कार हो, लोक में सर्वप्राचार्यों को नमस्कार हो, लोक में सर्व उपाध्यायों को नमस्कार हो, लोक में सर्वसाधुयों को नमस्कार हो । 'सर्व नमस्कारेष्ववतन सर्वलोक शब्दावन्तदीपकत्वादध्याहर्तव्यौ सकलक्षेत्रगतविकालगोचरार्हदा विदेवता प्रणमनार्थम् । ध. पु. १ पृ० ५२ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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