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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १३९१ अर्थ --- यह पंचनमस्कारमंत्र सर्वपापों का नाश करनेवाला है और सब मंगलों में प्रथममंगल है । 'सब मंगलों में प्रथममंगल है' इससे ज्ञात होता है कि पंचनमस्कार मंत्र अनादि है । मंत्र व अनिबद्ध मंगल श्लोकरूप नहीं होते । जैसे ' णमो जिणाणं' प्रनिबद्ध मंगल है, किन्तु श्लोकरूप नहीं है । षट्खंडागम के जीवस्थान का मंगलरूप जो णमोकार है वह श्लोकरूप है । इसलिये श्री वीरसेनाचार्य ने ध० पु० १ पृष्ठ ४१ पर लिखा है 'तच्च मंगलं दुविहं णिबद्धमणिबद्ध मिदि । तत्थ णिबद्ध ं णाम, जो सुत्तस्सादीए सुतकत्तारेण णिबद्ध- देवदाणमोक्कारो तं निबद्धमंगलं । जो सुत्तस्सादीए सुत्तकत्तारेण कयदेवदा - णमोक्कारो तमणिबद्ध मंगलं । इदं पुण जीवद्वाणं निबद्ध - मंगलं । यतो 'इमेसि चोद्दसहं जीवसमासाणं' इदि एदस्स सुत्तस्सादीए निबद्ध 'णमो अरिहंताणं' इच्चादि देवदाणमोक्कारं दंसणादो ।' अर्थ -- वह मंगल दो प्रकार का है, निबद्ध - मंगल और श्रनिबद्ध - मंगल । जो ग्रन्थ के आदि में ग्रन्थकार के द्वारा इष्ट देवता नमस्कार निबद्ध कर दिया जाता है अर्थात् श्लोकादिरूप से रचा जाता है, उसे निबद्ध-मंगल कहते हैं । और जो ग्रन्थकार के द्वारा देवता को नमस्कार किया जाता है ( किन्तु श्लोकादि के द्वारा संग्रह नहीं किया जाता है ) उसे निबद्ध - मंगल कहते हैं । उसमें से यह पंचनमस्कार मंत्र 'जीवस्थान' नामका प्रथमखंडागम निबद्धमंगल है, क्योकि 'इमेसि चोद्दसहं जीव समासाणं' इत्यादि जीवस्थान के प्रथमसूत्र के पहले ' णमो अरिहंताणं' इत्यादिरूप से देवता - नमस्कार निबद्धरूप से देखने में आता है । ध० पु० ९ पृ० १०३ पर भी कहा है 'णिबद्धाणिबद्धभेrण दुविहं मंगलं । तत्थेदं कि णिबद्धमाहो अणिबद्धमिदि ? ण ताव णिबद्धमंगलमिदं, महाकम्मपय डिपाहुडस्स कदियादि चउवीसअणियोगावयवस्त आदीए गोदमसामिणा परविदस्स भूदबलिभडारएण drणाखंडस आदोए मंगलट्ठ तत्ती आलेद्ण ठविवस्स णिबद्धत्तविरोहादो । ण च वेयणाखंडं महाकम्मपयडिपाहुडं, अवयवस्त अवयवित्त-विरोहादो । न च भूदबली गोदमो, वियलसुदधारयस्स धरसेणाइरियसीसस्स भूदबलिस्स सयलसुदधारयबड्डूमागंतेवासिगोदमत्तविरोहादो। ण चाण्णो पयारो णिबद्धमंगलत्तस्स हेदुभूदोअस्थि । तम्हा अणिबद्ध मंगलमिदं ।' अर्थ - निबद्ध और निबद्ध के भेद से मंगल दो प्रकार है। उनमें से 'णमो जिणाणं' यह मंगल निबद्ध है श्रथवा अनिबद्ध ? यह ‘णमो जिणाणं' निबद्धमंगल तो हो नहीं सकता, क्योंकि, कृति आदि चौबीसप्रनुयोगद्वारोंरूप अवयवों वाले महा कर्मप्रकृतिप्राभृत के आदि में श्री गौतमस्वामी ने इसकी प्ररूपणा की है और श्री भूतबलि भट्टारक ने वेदनाखंड के आदि में मंगल के निमित्त इसे वहाँ से लाकर स्थापित किया है, अतः इसे निबद्ध मानने में विरोध है । और वेदनाखंड महाकर्म प्रकृतिप्राभृत है नहीं, क्योंकि अवयव के श्रवयवी होने का विरोध है । और न श्री भूतबलि श्री गौतम ही हैं, क्योंकि विकल श्रुतधारक और श्री धरसेनाचार्य के शिष्य श्री भूतबलि को सकल त धारक और श्री वर्धमानस्वामी के शिष्य श्री गौतम होने का विरोध है । इसके अतिरिक्त निबद्धमंगलत्व का हेतुभूत और कोई प्रकार है नहीं । अतः 'नमो जिणाणं' यह श्रनिबद्धमंगल है । यद्यपि पंचनमस्कार मंत्र अनादि है तथापि उसी की श्लोकरूप रचना श्री पुष्पदंत आचार्यकृत है, ऐसा प्रतीत होता है। क्योंकि श्री वीरसेनाचार्य ने इस पंचनमस्कारमंत्र के श्लोक को जीवस्थान का निबद्धमंगल कहा है । यह प्रश्न बहुत गंभीर है, पूर्व में इस पर चर्चा भी हो चुकी है । आशा है विद्वत्मंडल इस विषयपर गंभीरता से विचारकर निष्पक्षदृष्टि से शांतिपूर्वक प्रकाश डालने की कृपा करेगा। इस समाधान में श्री वीरसेनाचार्य का प्राशय प्रकट किया गया है। - जं. ग. 4 - 7 - 66 / IX / र. ला जैन एम. कॉम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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