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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १३९३ पंचपरमेष्ठियों को नमस्कार करने में, इस णमोकारमंत्र में जो 'सर्व' और 'लोक' पद हैं. वे अन्तदीपक हैं, अतः सम्पूर्णक्षेत्र में रहनेवाले त्रिकालवर्ती अरिहंत आदि देवताओं को नमस्कार करने के लिये उन्हें प्रत्येक नमस्कारात्मकपद के साथ जोड़ लेना चाहिए। 'छत्तीसगाहुच्चारण कालेण (३६) असदुसासकालेण वा कालसुद्धी समप्पदि ॥१०॥ -ध० पु० ९ पृ० २५४ 'छत्तीस (३६) गाथाओं के उच्चारण काल से अथवा एक सौ आठ (१०८) उच्छ्वासकाल से कालशुद्धि समाप्त होती है। यहाँ पर णमोकारमंत्र की गाथा के ३६ बार उच्चारणकाल को १०८ उच्छ्वासकाल के बराबर कहा है। अतः णमोकार मंत्र की गाथा का एक बार उच्चारणकाल तीन उच्छ्वास के बराबर होता है। -जं. ग. 25-11-71/VIII/ र. ला. जैन पंच परमेष्ठी में पांचों देवत्व को प्राप्त होते हुए भी समी चरमशरोरी नहीं हैं शंका-नमस्कारमंत्र पाँचों परमेष्ठियों को नमस्काररूप महामंत्र कहा है। इसमें पांचों ही चरमशरीरी होते हैं या श्री अहंत व सिद्धभगवान के अतिरिक्त अन्य तीन चरमशरीरी नहीं होते ? खुलासा लिखने की कृपा करें । जो चरमशरीरी नहीं, उसको नमस्कार क्यों की जावे ? समाधान-नमस्कारमंत्र में चरमशरीरी या अचरमशरीरी की अपेक्षा से नमस्कार नहीं किया गया है। वीतरागता व विज्ञानता अथवा सम्यकरत्नत्रयगुण की अपेक्षा नमस्कार किया गया है। श्री धवल ग्रन्थ प्रथम पुस्तक में इसका विशेष विवेचन है। उसका कुछ भाग यहाँ पर दिया जाता है-'पांच परमेष्ठियों को नमस्कार करने में, इस णमोकार मंत्र में जो 'सर्व' और 'लोक' पद हैं वे अन्तदीपक हैं। अतः सम्पूर्ण क्षेत्र में रहनेवाले त्रिकालवर्ती अरिहंत आदि देवताओं को नमस्कार करने के लिए उन्हें प्रत्येक नमस्कारात्मकपद के साथ जोड़ लेना चाहिए। शंका-जिन्होंने आत्मस्वरूप को प्राप्त कर लिया है ऐसे अरिहंत और सिद्धपरमेष्ठी को नमस्कार करना योग्य है, किन्तु आचार्यादिक तीनपरमेष्ठियों ने आत्मस्वरूप को प्राप्त नहीं किया, इसलिये उनमें देवपना नहीं आ सकता है । अतएव उन्हें नमस्कार करना योग्य नहीं? इसका उत्तर इसप्रकार दिया गया है समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि, अपने भेदों में अनन्तभेदरूप रत्नत्रय ही देव है, अतएव रत्नत्रय से युक्त जीव भी देव है, अन्यथा सम्पूर्ण जीवों को देवपना प्राप्त होने की आपत्ति आ जायगी। इसलिए यह सिद्ध हुआ कि प्राचार्यादिक भी रत्नत्रय के यथायोग्य धारक होने से देव हैं, क्योंकि अरिहंतादिक से प्राचार्यादिक में रत्नत्रय के सद्भाव की अपेक्षा कोई अन्तर नहीं है। प्राचार्यादिक परमेष्ठियों में स्थित तीन रत्नों का सिद्धपरमेठी में स्थित रत्नों से भेद भी नहीं है। यदि दोनों के रत्नत्रय में सर्वथा भेद मान लिया जावे, तो प्राचार्यादिक में स्थित रत्नों के अभाव का प्रसंग आवेगा। प्राचार्यादिक और सिद्धपरमेष्ठी के सम्यग्दर्शनादि रत्नों में कारण-कार्य के भेद से भेद नहीं माना जा सकता है, क्योंकि प्राचार्यादिक में स्थित रत्नों के अवयवों के रहने पर ही तिरोहित दूसरे रत्नावयवों का अपने प्रावरणकों के अभाव हो जाने के कारण आविर्भाव पाया जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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