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________________ १३६८ ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : नाम निक्षेप की परिभाषा [मतद्वय] शंका-नाम निक्षेप की सही परिभाषा क्या समझें? समाधान-नाम-निक्षेप की परिभाषा के विषय में प्राचार्यों में मतभेद है। श्री वीरसेनाचार्य ने नामनिक्षेप की परिभाषा इसप्रकार की है--'अन्य निमित्तों की अपेक्षारहित किसी की 'मंगल' ऐसी संज्ञा करने को नाममंगल कहते हैं । नाम निक्षेप में संज्ञा के चार निमित्त होते हैं, जाति, द्रव्य, गुण और क्रिया (पृ० १७ )। वाच्यार्थ की अपेक्षारहित 'मंगल' यह शब्द नाम मंगल है (पृ० १९)। (धवल पु० १) श्री पूज्यपादाचार्य ने नामनिक्षेप की परिभाषा इसप्रकार की है-'संज्ञा के अनुसार गुणरहित वस्तु में व्यवहार के लिये अपनी इच्छा से की गई संज्ञा को नाम कहते हैं ।' (स. सि. अ. १ सूत्र ५)। इन दोनों प्राचार्यों को गुरु परम्परा से भिन्न-भिन्न उपदेश प्राप्त हुए थे अतः उन उपदेशों के अनुसार नाम-निक्षेप की भिन्न-भिन्न परिभाषा हो गई । केवली व श्रु तकेवली का वर्तमान में अभाव होने के कारण यह नहीं कहा जा सकता कि कौनसा उपदेश यथार्थ है । (ध. पु. १. पृ. २२२ )। ___ शंका-यदि किसी मनुष्य का नाम 'शेरसिंह' रखा जावे तो क्या यह नामनिक्षेप नहीं है ? यदि नहीं, तो क्या है ? समाधान-श्री पूज्यपादाचार्य के मतानुसार मनुष्य का नाम 'शेरसिंह' यह नाम निक्षेप है, क्योंकि व्यवहार के लिए अपनी इच्छा से की गई संज्ञा है । श्री वीरसेनाचार्य के मतानुसार यदि उस मनुष्य में 'सिंह' जैसी क्रिया पाई जाती है तो उस मनुष्य की 'शेरसिंह' संज्ञा, क्रिया निमित्तक होने से, नामनिक्षेप हो सकती है। यदि उस मनुष्य में सिंह जैसे गुण या क्रिया नहीं हैं तो वह नामनिक्षेप की परिभाषा में नहीं पाता, मात्र लोक व्यवहार है। -जं. ग. 18-6-64/IX/र. ला. जैन, मेरठ स्थापनानिक्षेप किस नय का विषय है ? शंका-स्थापनानिक्षेप कौनसे नय का विषय है ? और उस नय का स्वरूप क्या है ? समाधान-स्थापनानिक्षेप नंगमसंग्रह और व्यवहार इन तीनों नयों का विषय है, क्योंकि इन तीनों द्रव्याथिकनयों के छहों निक्षेप विषय हैं। इस बात को स्वीकार करने में कोई विरोध नहीं पाता। कहा भी है'दव्वटियाणं तिष्णमेदेसि णयाणं विसए छण्णं णिक्खेवणमत्थित्तं पडि विरोहाभावादो।' ष. खं. पु. १४ पृ. ५२ ॥ इन तीनों नयों का लक्षण स. सि. अ. १, पृ. ३३ की टीका अनुसार इसप्रकार है-'अनभिनिर्वृत्तार्थसंकल्पनाग्राही नैगमः। स्वजात्यविरोधेनैकत्यमुपानीय पर्यायानाक्रान्तभेदानविशेषेण समस्तग्रहणात्संग्रहः । संग्रहनयाक्षिप्तानामर्थानां विधिपूर्वकमवहरणं व्यवहारः ।' अर्थ-अनिष्पन्नअर्थ में संकल्पमात्र को ग्रहण करनेवाला नय नैगम है । भेदसहित सब पर्यायों को अपनी जाति के अविरोध द्वारा एक मानकर सामान्य से सबको ग्रहण करनेवाला नय संग्रहनय है। संग्रहनय के द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थों का विधिपूर्वक अवहरण अर्थात् भेद करना व्यवहारनय है। -ज. सं. 6-6-57/..../ जन स्वाध्याय मण्डल, वामन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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