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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व 1 [ १३६३ अतः 'स्यात्' पद सापेक्ष व्यवहारनय से भी वस्तु का निर्णय हो सकता है । किन्तु व्यवहारनय का एकांतपक्ष भी ग्रहण नहीं करना चाहिये। -जं. सं. 19-12-57/V-VI/ रतनकुमार जैन १. दुनिया के मिथ्या एकान्त मिलकर अनेकान्त को जन्म नहीं देते २. निरपेक्ष नयों का समूह सम्यगनेकान्त नहीं है शंका- जैनसन्देश १-१-७० के सम्पादकीय में पं० दरबारीलालजी कोठिया का मत है कि दुनिया के मिथ्याएकान्त मिलकर अनेकान्त को जन्म देते हैं। इसपर आचार्यों का मत क्या है ? समाधान-इस सम्बन्ध में श्री समन्तभद्राचार्य विरचित आप्तमीमांसा का निम्नलिखित श्लोक प्रस्तुत किया जाता है, जिससे यह विषय स्पष्ट हो जायगा मिथ्यासमूहो मिथ्या चेन्न मिथ्यकान्ततास्ति नः । निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत् ॥१०॥ श्री पं० जयचन्दजी छाबड़ा कृत अर्थ - इहां अन्यवादी तर्क करै जो तुमने वस्तु का स्वरूप नय और उपनय का एकान्त का समूहकू द्रव्यकरि कह्या, सो नयन का एकान्तकूतौ तुम मिथ्या कहते प्रावो हो, सो मिथ्या नयनका समूह भी मिथ्या ही होय ? ताकू प्राचार्य कहे हैं जो मिथ्या नयनका समूह है सो तौ मिथ्या ही है। बहुरि हमारे जैनीनि के नयन के समूह हैं सो मिथ्या नाहीं। जाते ऐसा कह्या है-जे परस्पर अपेक्षा रहित नय हैं, ते तो मिथ्या हैं, बहुरि जे परस्पर अपेक्षासहित नय हैं, ते वस्तुस्वरूप हैं, ते अर्थ-क्रिया कू कर ऐसा वस्तुकू साधे हैं । निरपेक्षपणा है, यो तो प्रतिपक्षीधर्म का सर्वथा निराकरण स्वरूप है। बहुरि प्रतिपक्षीधर्म तै उपेक्षा कहिये उदासीनता सो सापेक्षपणा है। उपेक्षा न होय पर प्रतिपक्षी धर्मकू मुख्य करें तो प्रमाण-नय में विशेष न ठहरे है। प्रमाण-नय और दुर्नय का ऐसा ही लक्षण बण है । दोउ धर्म का समान ग्रहण सो तो प्रमाण, बहुरि प्रतिपक्षी धर्म ते उपेक्षा सो सुनय, बहुरि प्रतिपक्षी धर्म का सर्वथा त्याग सो दुर्नय ऐसे सर्वका उपसंहार संक्षेप से जानना ।।१०८॥ श्री पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारकृत व्याख्या-यहाँ अनेकान्त के प्रतिपक्षी द्वारा यह आपत्ति की गई है कि जब एकान्तों को मिथ्या बतलाया जाता है तब नयों और उपनयोंरूप एकान्तों का समूह जो अनेकान्त और तदात्मक वस्तुतत्त्व है वह भी मिथ्या ठहरता है, क्योंकि मिथ्याओं का समूह मिथ्या ही होता है। इस पर ग्रन्थकार महोदय कहते हैं कि यह अापत्ति ठीक नहीं है, क्योंकि हमारे यहां कोई वस्तु मिथ्या एकान्त के रूप जब वस्तु का एकधर्म दूसरे धर्म की अपेक्षा नहीं रखता, उसका तिरस्कार कर देता है तो वह मिथ्या कहा जाता है और जब वह उसकी अपेक्षा रखता है, उसका तिरस्कार नहीं करता, तो वह सम्यक् माना जाता है। वास्तव में वस्तु निरपेक्ष एकान्त नहीं है, जिसे सर्वथा एकान्तवादी मानते हैं, किन्तु सापेक्षएकान्त है और सापेक्षएकान्तों के समह का नाम ही अनेकान्त है, तब उसे और तदात्मकवस्तु को मिथ्या कैसे कहा जा सकता है ? नहीं कहा जा सकता। श्री पं० बरगरीलालजी कोठिया इससे पूर्ण सहमत होंगे कि मिथ्यानयों का समूह सम्यगनेकान्त नहीं है, किन्तु सुनयों का समूह ही सम्यगनेकान्त है, क्योंकि कोठियाजी स्वयं श्री जुगलकिशोरजी कृत व्याख्या के प्रकाशक हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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