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________________ १३६२ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : मो. शा. सू. ६ अ. १ अर्थात् सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय और जीवादितत्त्वों का ज्ञान प्रमाण और नय से होता है। इस सुत्र की व्याख्या करते हुए ष. खं. पु. ९ पृ. १६४ पर लिखा है-'नयवाक्यों' से उत्पन्न बोध प्रमाण ही है, नय नहीं है, इस बात के ज्ञापनार्थ 'उन दोनों प्रमाण-नय से वस्तु का ज्ञान होता है' ऐसा कहा जाता है।' श्री ज. ध.प्र. १ पृ. २०९ पर भी कहा है 'जिसप्रकार प्रमाण से वस्तु का बोध होता है उसीप्रकार नयवाक्य से भी वस्तु का ज्ञान होता है, यह देखकर तत्त्वार्थ सूत्र में 'प्रमाणनयरधिगमः' इसप्रकार प्रतिपादन किया है।' उक्त प्रागमप्रमाणों का सारांश यह है कि 'प्रत्यक्ष-परोक्षप्रादि प्रमाणों में से प्रत्येक प्रमाण के द्वारा तथा निश्चय, व्यवहार आदि नयों में से प्रत्येक सुनय के द्वारा वस्तु का यथार्थज्ञान होकर अज्ञान की निवृत्ति होती है।' इन आगमप्रमारणों में यह नहीं कहा गया कि प्रत्यक्षप्रमाण के द्वारा या निश्चयनय के द्वारा ही वस्तु का बोध ( अधिगम-ज्ञान ) होगा, परोक्षप्रादि प्रमाणों के द्वारा या व्यवहारमादि नयों के द्वारा वस्तु का अधिगम (निर्णय) नहीं होगा। अतः प्रत्येक प्रमाण के द्वारा अथवा प्रत्येकनय के द्वारा वस्तु का निर्णय हो सकता है। वस्तु नित्यानित्यात्मक है । जिसप्रकार निश्चयनय नित्यअंश के कथन के द्वारा नित्यात्मक वस्तु का निर्णय कराता है उसीप्रकार व्यवहारनय अनित्य-अंश के कथन के द्वारा नित्यानित्यात्मक वस्तु का निर्णय कराता है। यदि व्यवहारनय द्वारा कथित अनित्य-अंश के द्वारा वस्तु का यथार्थनिर्णय न होता तो 'अनित्यभावना' द्वारा संवर नहीं हो सकता था। मो. शा. अ. ९ सू. १,२ व ७ के द्वारा अनित्यभावना से संवर कहा है। वस्तुस्वरूप का अनिर्णय तो मिथ्यात्व है उसके द्वारा संवर असम्भव है। __ जो मात्र एक ( निश्चयनय ) नय के पक्षपाती हैं उनके लिये समयसार कलश ७०-८९ के द्वारा उपदेश दिया गया है इसमें कलश नं० ८३ इसप्रकार है एकस्य नित्यो न तथा परस्य चितिद्वयोविति पक्षपाती। यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपात स्तस्यास्तिनित्यं खल चिच्चिदेव ॥८३॥ अर्थ-जीव नित्य है ऐसा एक नय का पक्ष है और जीव नित्य नहीं है ऐसा दूसरे नय का पक्ष है, इसप्रकार चित्स्वरूप जीव के सम्बन्ध में दो नयों के दो पक्षपात हैं। जो तत्त्ववेत्ता पक्षपातरहित है उसे निरंतर चितस्वरूप जीव चित्स्वरूप ही है। । अतः किसी एक नय के पक्षपात को छोड़कर 'स्यात्' ( कथंचित् ) पद के द्वारा निश्चय व व्यवहारनय के विरोध को दूर कर जैनागम का अर्थ खोलना चाहिये । दुनिवारनयानीक विरोध-ध्वंसनौषधिः । स्यात्कारजीविता जीयाज्जैनीसिद्धांतपद्धतिः ॥२॥ (पंचास्तिकाय तत्त्व प्रदीपिका) अर्थ-जिनेन्द्र से आई हुई सिद्धांतपद्धति जयवन्त हो। कैसी है सिद्धांतपद्धति ? जो नयसमूह के दुनिवार विरोध को दूर करने के लिये औषधि है और 'स्यात्' पद जिसका प्राण है। अतः अनेकान्तरूपी चाबी ( Master Key ) के द्वारा जैन शास्त्रों का अर्थ खोलना चाहिये, मात्र निश्चयनयरूपी चाबी के द्वारा जैनशास्त्रों का अर्थ खोलने से अथवा वस्तु निर्णय करने से एकान्तमिथ्यात्व की उत्पत्ति होगी जिससे अनन्तसंसार में भ्रमण करना पड़ेगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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