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________________ १३६४ ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : श्री पूज्यपादाचार्य ने भी कहा है-- 'त एते गुणप्रधानतया परस्परतंत्रताः सम्यग्दर्शनहेतवः पुरुषार्थक्रियासाधनसामर्थ्यात्तन्त्वादय इव यथोपायं विनिवेश्यमानाः पटादिसंज्ञाः स्वतन्त्राश्चासमर्थाः।' अर्थ-ये सब नय गौण-मुख्यरूप से एक दूसरे की अपेक्षा करके ही सम्यग्दर्शन के हेतु हैं। जिसप्रकार पुरुष की अर्थ क्रिया और साधनों की सामर्थ्यवश यथायोग्य निवेशित किये गये तन्तु आदि पटादिक संज्ञा को प्राप्त होते हैं और स्वतन्त्र रहने पर ( पटरूप ) कार्यकारी नहीं होते हैं, उसीप्रकार ये नय समझने चाहिए । तन्तु और पट के दृष्टांत द्वारा श्री पूज्यपादाचार्य ने यह स्पष्ट कर दिया कि जिसप्रकार निरपेक्ष तन्तुओं का समह पटरूप कार्य को करने में असमर्थ है। उसीप्रकार निरपेक्षनयों का समह अर्थात मिथ्यानयों का अनेकान्तरूप वस्तुस्वरूप को सिद्ध करने में असमर्थ होने से सम्यग्दर्शन को उत्पन्न नहीं कर सकता है। तन्तुओं का समूह परस्पर एक दूसरे का सापेक्ष ही कर ही पटरूप कार्य को करने में समर्थ होता है। उसीप्रकार सापेक्षनयों का समूह ही अनेकान्तरूप वस्तुस्वरूप को सिद्ध करने में समर्थ होने से सम्यग्दर्शन का हेतु है । एकान्तवादियों के निरपेक्ष (मिथ्या ) नयों का समूह सम्यगनेकान्त नहीं होता है, किन्तु सापेक्ष (सम्यक्) नयों का समूह ही सम्यगनेकान्त होता है। -पो. ग. 19-3-70/IX-X/........ यदि द्रव्यदृष्टि में मरण नहीं तो 'जीमो और जीने दो' का उपदेश क्यों ? शंका-द्रव्यदृष्टि से एक व्यक्ति न तो दूसरे को मार सकता है और न बचा सकता है, तब 'जीओ और जीने दो' का उपदेश क्यों दिया गया ? समाधान-पदार्थ सामान्य-विशेषात्मक है। श्री माणिक्यनन्दि आचार्य ने कहा भी है-- 'सामान्यविशेषात्मा तदर्थो विषयः ॥१॥' सूत्र में 'सामान्य-विशेषात्मा' ऐसा विशेषण पदार्थ के लिए दिया गया है, जिसका अभिप्राय यह है कि पदार्थ न केवल सामान्यरूप है, न केवल विशेषरूप है, और न स्वतन्त्र उदयरूप है, अपितु उभयात्मक है । 'अनुवृतव्यावृतप्रत्ययगोचरत्वात्पूर्वोत्तराकार परिहारवाप्तिस्थितिलक्षणपरिणामेनार्थक्रियोपपत्तेश्च' ॥२॥ वस्तु सामान्य-विशेष धर्मवाली है, क्योंकि वह अनुवृत्तप्रत्यय और व्यावृत्तप्रत्यय की विषय है, तथा पर्वाकार का परिहार उत्तराकार की प्राप्ति और स्थितिलक्षण परिणाम के साथ उसमें अर्थक्रिया पाई जाती है। सामान्यदृष्टि की मुख्यता में वस्तु अनुवृत्तप्रत्यय की विषय होती है तथा स्थिति लक्षणवाली होती है, उसमें सदा एकरूपता रहती है। व्यावृत्तप्रत्यय पूर्वाकार का परिहार, उत्तर आकार की प्राप्ति तथा अनेकरूपता गौण रहती हैं। इस सामान्यष्टि को द्रव्यदृष्टि भी कहते हैं और विशेषदृष्टि को पर्यायष्टि कहते हैं। चूकि वस्तु सामान्य विशेषात्मक है इसीलिये भगवान ने द्रव्याथिक और पर्यायाथिक ऐसे दो नय कहे हैं। वस्तु का कथन दोनों नयों के आधीन होता है, किसी एक नय के प्राधीन नहीं होता है । श्री अमृतचन्द्राचार्य ने पंचास्तिकाय में कहा भी है 'द्वौ हि नयौ भगवता प्रणीतौ द्रव्याथिकः पर्यायाथिकश्च । तत्र न खल्वेकनयायत्ता देशना किन्तु तदुभयायता।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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