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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १३६१ 'उपचरितकान्तपक्षेऽपि नात्मज्ञता सम्भवति नियमितपक्षत्वात् ॥१४॥ तथात्मनोऽनुपचरितपक्षेऽपि परज्ञतादीनां विरोधः स्यात् ॥१४९॥' [आलापपद्धति] उपचरितस्वभाव के एकान्तपक्ष में प्रात्मज्ञता सम्भव नहीं है क्योंकि उपचरितस्वभाव का परज्ञान नियतपक्ष है । आत्मज्ञता तो अनुपचरितस्वभाव है, किन्तु उपचरितएकान्तपक्ष में अनुपचरित का निषेध है। उसीप्रकार पक्ष में आत्मा के परज्ञता अर्थात् सर्वज्ञता का अभाव हो जायगा। सर्वज्ञता का अभाव इष्ट नहीं है अतः उपचरित स्वभाव को स्वीकार करना होगा और अनुपचरित एकान्तपक्ष का निषेध करना होगा। उपचरितस्वभाव किस नय का विषय है इसके लिये श्री देवसेनाचार्य निम्नसूत्र कहते हैं - 'असद्भूतव्यवहारेण उपचरितस्वभावः ॥१७६॥' [आलापपद्धति] उपचरितस्वभाव असद्भूतध्यवहारनय का विषय है । जो नय द्रव्यगतस्वभाव को विषय करता है वह नय मिथ्या नहीं हो सकता है । सम्यक्नय से तो वस्तु का यथार्थज्ञान होता है । कहा भी है द्रव्याणां तु यथारूपं तल्लोकेऽपि व्यवस्थितम् । तथा ज्ञानेन संज्ञाते नयोऽपि हि तथाविधः ॥११॥ [आलापपद्धति] द्रव्यों का जिसप्रकार का स्वरूप है, वह लोक में व्यवस्थित है। ज्ञान से द्रव्यों का स्वरूप उसीप्रकार जाना जाता है, नय भी उसीप्रकार जानता है। - सद्भूतव्यवहारनय, असद्भूतव्यवहारनय, शुद्धनिश्चयनय, अशुद्धनिश्वयनय, कोई भी नय हो यदि वह सापेक्ष है तो सम्यक् है, यदि निरपेक्ष है तो मिथ्या है। दुर्नयैकान्तमारूढा भावा न स्वाथिकाहिताः । स्वार्थिकास्तदविपर्यस्ता निःकलंकास्तथा यतः ॥ [नयचक्र पृ० ६३] दुर्नय एकांत को लिये हुए भाव सम्यगर्थवाले नहीं होते अर्थात् मिथ्यार्थवाले होते हैं। जो नय एकान्त से रहित भाववाले हैं अर्थात् सापेक्ष हैं वे समीचीन (सम्यक्) अर्थ को बतलाने वाले हैं । व्यवहार-निरपेक्ष निश्चयनय सम्यगर्थवाला नहीं है अर्थात् मिथ्यार्थवाला है। निश्चय-सापेक्ष व्यवहारनय सम्यगर्थवाला है मिथ्याअर्थवाला नहीं है। -जं. ग. 26-4-73/VII/........ अनेकान्तरूपी चाबी के द्वारा जैन शास्त्रों का अर्थ खोलना चाहिए शंका-क्या व्यवहारनय के कथन द्वारा वस्तु स्वरूप का निर्णय नहीं करना चाहिए ? समाधान-सर्वप्रथम 'नय' के स्वरूप व फल पर विचार किया जाता है। नय का स्वरूप इसप्रकार है'उच्चारण किये गये अर्थपद् और उसमें किये गये निक्षेप को देखकर अर्थात् समझकर पदार्थ को ठीक निर्णय तक पहुँचा देते हैं इसलिए वे नय कहलाते हैं ।' ष. खं. पु. १ पृ. १० नय का फल-'यह नय, पदार्थों का जैसा स्वरूप है उसरूप से उनके ग्रहण करने में निमित्त होने से मोक्ष का कारण है। इसलिए नय का कथन किया जाता है।' ज. ध. पु. १ पृ. २११ । 'प्रमाणनयरधिगमः ॥६॥' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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