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________________ १३६० ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : 'स्वभावा कथ्यन्ते-अस्तिस्वभावः, नास्तिस्वभावः, नित्यस्वभावः, अनित्यस्वभावः, एकस्वभावः, अनेकस्वभावः भेदस्वभावः, अभेदस्वभावः, भव्यस्वभावः, अभध्यस्वभावः, परमस्वभावः, एते द्रव्याणामेकादश सामान्यस्वभावाः, चेतनस्वभावः, अचेतनस्वभावः, मूर्तस्वभावः, अभूर्तस्वभावः, एकप्रदेशस्वभावः, अनेकप्रदेशस्वभावः विभावस्वभावः, शुद्धस्वभावः, अशुद्धस्वभावः, उपचरितस्वभावः एते द्रव्याणां दश विशेषस्वभावाः ॥२८॥ जीव पुद्गलयोरेकविंशतिः ॥२९॥ अर्थ-स्वभाव का कथन किया जाता है-अस्तिस्वभाव, नास्तिस्वभाव, नित्यस्वभाव, अनित्यस्वभाव, एकस्वभाव, अनेकस्वभाव, भेदस्वभाव, अभेदस्वभाव, भव्यस्वभाव, प्रभव्यस्वभाव, परमस्वभाव ये द्रव्यों के ११ सामान्य स्वभाव हैं । चेतनस्वभाव, अचेतनस्वभाव, मूर्तस्वभाव, अमूर्तस्वभाव, एकप्रदेशस्वभाव, अनेकप्रदेशस्वभाव, विभावस्वभाव, शूद्धस्वभाव, अशुद्धस्वभाव, उपचरितस्वभाव, ये द्रव्यों के दस विशेषस्वभाव हैं। जीव और पदगल में उपर्युक्त २१-२१ ( ११ सामान्य और १० विशेष स्वभाव पाये जाते हैं । ___ इन सूत्रों से यह स्पष्ट हो जाता है कि 'उपचार' भी द्रव्य का स्वभाव है। द्रव्य के स्वभाव का कथन करनेवाला नय मिथ्या नहीं हो सकता है। श्री देवसेनाचार्य उपचरितस्वभाव की व्युत्पत्ति तथा भेद कहते हैं 'स्वभावस्याप्यन्यत्रोचारादुपचरितस्वभावः ॥१२३॥ स द्वधा कर्मज-स्वाभाविकभेदात् । यथा जीवस्य मूर्तत्वमचेतनत्वे । यथा सिद्धात्मनां परज्ञता परदर्शकत्वं च ॥१२४॥ ___ अर्थ-स्वभाव का भी अन्यत्र उपचार करना उपचरितस्वभाव है ॥१२३॥ वह उपचरितस्वभाव कर्मज और स्वाभाविक के भेद से दो प्रकार का है। जैसे जीव के मूर्तत्व और अचेतनत्व कर्मजउपचरितस्वभाव हैं। तथा जैसे-सिद्ध आत्माओं के पर का जानपना तथा पर का दर्शकत्व स्वाभाविक उपचरितस्वभाव है ॥१२४॥ यहाँ पर यह बतलाया गया है कि परपदार्थों को जानना व देखना उपचरित स्वभाव है। समस्त परपदार्थों को जाने बिना सर्वज्ञ हो नहीं सकता, अतः सर्वज्ञता उपचरितस्वभाव है। इसीप्रकार अर्थात् उपचरितस्वभाव के कारण संसारीजीव मूर्तिक है, कहा भी है 'संसारथा रूवा कम्मविमुक्का अरूवगया ॥' गो. जी. गा. ५६३ कर्म-बंध के कारण संसारीजीव मूर्तिक है। कर्मबंध से मुक्त सिद्धजीव अमूर्तिक है। श्री अमृतचन्द्राचार्य ने भी कहा है तथा च मूर्तिमानात्मा सुराभिर्भवदर्शनात् । नह्यमूर्तस्य नभसो मदिरा मदंकारिणी ॥१९॥ [तत्त्वार्थसार, बंध अधिकार] आत्मा ( जीव ) मूर्तिक होने के कारण मदिरा से पागल हो जाती है, किन्तु अमूर्तिक आकाश में मदकारिणी नहीं होती है। यदि उपचरित स्वभाव और अनुपचरितस्वभाव इन दोनों में से किसी एक का एकांत पक्ष लिया जावे अर्थात प्रतिपक्षी को स्वीकार न किया जाय तो ऐसा एकान्तपक्ष ग्रहण करने से क्या दोष पाता है इसका कथन श्री देवसेनाचार्य करते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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