SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 492
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३५६ ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : । अध्यात्मभाषा की अपेक्षा नय का कथन करने पर निश्चयनय और व्यवहारनय इसप्रकार दो मूलनय हैं। निश्चयनय अभेद विषय को ग्रहण करता है और व्यवहारनय भेद विषय को ग्रहण करता है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र ऐसा भेद करना व्यवहारनय का विषय है, निश्चयनय की दृष्टि में दर्शन-ज्ञान-चारित्र ऐसा भेद नहीं है, किन्तु उसका विषय एक अखण्ड आत्मा है । -जं. ग. 13-5-71/VII/ र. ला. जैन व्यवहार-निरपेक्ष निश्चय मिथ्या है तथा निश्चय निरपेक्ष व्यवहार मिथ्या है शंका-'निरपेक्षा नया मिथ्याः सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत्॥' इसका क्या अर्थ है और निश्चयनय व व्यवहारनय पर कैसे घटित होता है ? समाधान-यह वाक्य देवागम कारिका १०८ का उत्तरार्ध है। श्री पं० जयचन्दजी ने इसका अर्थ इसप्रकार किया है-'जे परस्पर अपेक्षारहित नय हैं ते तो मिथ्या हैं । बहुरि जे परस्पर अपेक्षासहित नय हैं, ते वस्तु स्वरूप हैं। ते अर्थ-क्रिया को करें ऐसा वस्तुकू साधे हैं । निरपेक्षपणा है सो तो प्रतिपक्षीधर्म का सर्वथा निराकरण स्वरूप है । बहुरि प्रतिपक्षी धर्म तै उपेक्षा कहिए उदासीनता सो सापेक्षपणा है। प्रतिपक्षी धर्म ते उपेक्षा सो सुनय बहरि प्रतिपक्षी धर्म का सर्वथा त्याग सो दुर्नय है ऐस सर्व का उपसंहार संक्षेप समेटना जानना। व्यवहारनय से निरपेक्ष निश्चयनय मिथ्या है इसीप्रकार निश्चयनय से निरपेक्ष व्यवहारनय भी मिथ्या है। व्यवहारनयसापेक्ष निश्चयनय सुनय है । निश्चयनयसापेक्ष व्यवहारनय सुनय है। निश्चयनय यदि व्यवहारनय का निराकरण करे तो दुर्नय है । यदि गौण करे तो सुनय है। इसीप्रकार व्यवहारनय यदि निश्चयनय का निराकरण करे तो दुर्नय है, यदि गौण करे तो सुनय है । कहा भी है 'अपितानर्पितसिद्धः ॥३२॥' तत्त्वार्थसूत्र मुख्यता और गौणता की अपेक्षा एक वस्तुमें परस्पर दो विरोधी-धर्मों की सिद्धि होती है । -णे. ग. 13-8-70/IX/........ व्यवहारनय मी कथंचित् सत्यार्थ है शंका-'दिगम्बर जैन ग्रन्थों में जो व्यवहारनय का कथन है, वह वास्तविक नहीं है किन्तु अभूतार्थ है।' या इसप्रकार की चाबी ( Master Key ) के द्वारा दिगम्बर जैन आगमग्रन्थों का अर्थ खोलने से मोक्षमार्ग की प्राप्ति होती है ? समाधान-निश्चयनय द्रव्याश्रित होने से स्वाभाविक भाव का अवलम्बन लेकर प्रवर्तमान होता है और व्यवहारनय पर्यायाश्रित होने से औपाधिकभाव का अवलम्बन लेकर प्रवर्तमान होता है। ( समयसार गाथा ५६ आत्मख्याति टीका) 'निश्चयनय करके यह जीव न कर्ता है, न भोक्ता है तथा क्रोधादि भावों से भिन्न है' तब दूसरे पक्ष में व्यवहारनय की अपेक्षा इस जीव के कर्तापन, भोक्तापना तथा क्रोधादिक से अभिन्नपना है, क्योंकि निश्चय और शवद्वारनय एक दूसरे की अपेक्षा रखने वाले हैं। परन्तु जो कोई निश्चयव्यवहार के परस्पर अपेक्षारूप नयविभागों को नहीं मानते; उनके मत में जैसे निश्चयनय से जीव का नहीं है और क्रोधादि से भिन्न है तैसे व्यवहार सभी अकर्ता व क्रोधादि से भिन्न है। ऐसा मानने पर जैसे सिद्धों के कर्भबन्ध नहीं होता वैसे अन्य जीवों के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy