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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १३५५ समाधान-जीव का स्वभाव चेतना है। चेतना के दो भेद हैं ज्ञान और दर्शन | बारहवें गूणस्थान तक ज्ञानावरण और दर्शनावरणकर्म का उदय रहता है जिसके कारण जीव के स्वभाव का घात रहता है। स्वभावघात की अपेक्षा से ही जीव बारहवें गुणस्थानतक परसमय कहा गया है, इसीलिये अशुद्ध निश्चयनय अथवा व्यवहारनय होता है ऐसा कथन किया गया है। बहिरंतरप्पभेयं परसमयं भण्णये जिणिदेहि । परमप्यो सगसमयं तब्भेयं जाण गुणठाणे ॥१४८॥ मिस्सोत्ति बाहिरप्पा तरतमया तुरिय अंतरप्पजहण्णा । संतोत्ति मज्झिमंतर खीणुत्तम परम जिणसिद्धा ॥१४०॥ ( रयणसार ) श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने इन दो गाथाओं में यह बतलाया है प्रथम तीनगुणस्थानोंतक जीव तरतमता से बहिरात्मा है। चौथे गुणस्थान में जघन्य अन्तरात्मा है। उपशांतमोह गुणस्थानतक मध्यम-अन्तरात्मा है, क्षीणकषाय गुणस्थान में उत्कृष्ट अन्तरात्मा है । श्री अरहंत व सिद्ध भगवान परमात्मा हैं। जिनेन्द्र भगवान ने बहिरात्मा और अन्तरात्मा को परसमय कहा है, परमात्मा को स्वसमय कहा है । इसप्रकार बारहवेंगुणस्थान तक जीव परसमय है, ऐसा व्याख्यान स्पष्ट रूप से पाया जाता है। सुद्धो सुद्धादेसो णायव्वो परमभाव दरिसोहि । ववहारदेसिदा पुण जे दु अपरमे टिदा भावे ॥१२॥ ( समयसार ) जो पूर्ण ज्ञान-चारित्रवान हो गये हैं उनको तो एक शुद्धनिश्चयनय प्रयोजनवान है और जो अपरमभाव अर्थात् श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र के पूर्ण भाव को नहीं पहुँच सके अर्थात् परमात्मपद को नहीं पहुँच सके उनके लिये व्यवहारनय ही प्रयोजनवान है। बारहवेंगुणस्थान तक ज्ञान पूर्ण नहीं होता है इसीलिए परमात्म पद को प्राप्त नहीं हुए हैं, क्योंकि छद्मस्थ हैं । छद्मस्थ अवस्था में अनेकभेद होने के कारण व्यवहारनय प्रयोजनवान है। -जं. ग. 15-6-72/VII/ रो. ला. मित्तल सम्यग्दर्शनादि मोक्षमार्ग हैं। इस वाक्य का ग्राहक व्यवहारनय है शंका-'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' यह सूत्र व्यवहारनय की अपेक्षा है या निश्चयनय की अपेक्षा है ? समाधान-यह सूत्र व्यवहारनय की अपेक्षा से है । कहा भी है ववहारेणुवदिस्सइ णाणिस्स चरित्त सणं णाणं । णवि णाणं ण चरित्तण सणं जाणगो सुद्धो ॥७॥ ( समयसार ) ज्ञानी ( जीव ) के चारित्र, दर्शन, ज्ञान ये तीनभाव व्यवहारनय से कहे जाते हैं । निश्चयनय कर ज्ञान भी नहीं है चारित्र भी नहीं है दर्शन भी नहीं है, एक ज्ञायक है, इसलिए शुद्ध कहा गया है। 'पुनरप्यध्यात्मभाषया नया उच्यन्ते । तावन्मूलनयो द्वौ निश्चयो व्यवहारश्च । तत्र निश्चयनयोऽभेदविषयो व्यवहारोभेदविषयः।' ( आलापपद्धति ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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