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________________ [ १३५७ व्यक्तित्व और कृतित्व ] धादि परिणमन न होने से कर्मबन्ध नहीं होगा। जब जीवों के कर्मबन्ध नहीं तब संसार का अभाव हो जायगा । संसार का अभाव होने पर इसी जीव के सदा मुक्तपना प्राप्त हो जाएगा। यह बात प्रत्यक्ष से विरोधरूप है । इससे निश्चयएकान्त मानना मिथ्या है ।' ( समयसार गाथा ११३ ११५ तात्पर्यवृत्ति टीका ) मोक्षमार्गप्रकाशक - अध्याय सात में भी इसप्रकार कहा है- 'द्रव्यदृष्टि करि एक दशा है । पर्यायदृष्टि कर अनेक अवस्था हो है । ऐसा मानना योग्य है । ऐसे ही अनेक प्रकार करि केवल निश्चयनय का अभिप्रायत विरुद्ध श्रद्धानादिक करे हैं। जिनवाणी विषं नाना नव अपेक्षा कहीं कैसा, कहीं कैसा निरूपण किया है। यह अपने अभिप्रायतं निश्चयनय की मुख्यता करि जो कथन किया होय, ताही को ग्रहि करि मिथ्यादृष्टि को धारे है। द्रव्यकरि सामान्यस्वरूप अवलोकना, पर्याय करि विशेष श्रवधारना । ऐसे ही चितवन किये सम्यग्दृष्टि हो है । जातें सांचा अवलोके बिना सम्यग्दष्टि कैसे नाम पावे ।' समयसार गाथा ६ भावार्थ में भी इसप्रकार कहा है- 'जीव में जो प्रमत्त प्रप्रमत्त के भेद हैं वे परद्रव्य के संयोगजनितपर्याय हैं । यह अशुद्धता द्रव्यदृष्टि में गौरण है, व्यवहार है, अभूतार्थ है, असत्यार्थ है, उपचार है । द्रव्यदृष्टि शुद्ध है, निश्चय है, भूतार्थ है, परमार्थ है, सत्यार्थ है। इसलिये सात्मा ज्ञायक है, उसमें भेद नहीं है। इसलिए वह प्रमत्त प्रप्रमत्त नहीं है। यहाँ यह भी जानना चाहिये कि जिनमत का कथन स्याद्वादरूप है, इसलिए अशुद्धन को सर्वथा असत्यार्थ न माना जावे, क्योंकि स्वाद्वाद प्रमाण से शुद्धता और अशुद्धता दोनों वस्तु के धर्म हैं और वस्तुधर्म वस्तु का सत्व है; अन्तर मात्र इतना ही है कि अशुद्धता परद्रव्य के संयोग से होती है । समयसार गाया ४६ की आत्मख्याति टीका में व्यवहारनय के कथन को वास्तविक स्वीकार किये बिना क्या दोष आ जायेंगे, उनको बताते हैं - 'व्यवहारनय के बिना, परमार्थ से शरीर को भिन्न बताया जाने पर, जैसे भस्म को मसल देने से हिंसा का अभाव है, उसी प्रकार त्रस स्थावर जीवों को निःशंकतया मसल देने ( घात करने ) में भी हिंसा का अभाव ठहरेगा और इस कारण बन्ध का ही अभाव सिद्ध होगा। दूसरे परमार्थ के द्वारा जीव राग-द्वेष मोह से मित्र बताया जाने पर भी रागी-द्वेषी, मोही जीव कर्म से बँधता है, उसे छुड़ाना है-ऐसे मोक्ष के उपाय के ग्रहण का प्रभाव हो जाएगा और इससे मोक्ष का ही अभाव होगा।' इस कथन के अनुसार व्यवहारनय at वास्तविक स्वीकार किये बिना बन्ध ( संसार ) व मोक्ष दोनों के अभाव का प्रसंग आजाएगा जो प्रत्यक्ष विरुद्ध है । किसी ने प्रश्न किया कि इस जीव से प्राण भिन्न हैं कि अभिन्न, यदि अभिन्न कहें तो जैसे जीव का नाश नहीं है वैसे प्राणों का भी विनाश नहीं होगा तो फिर हिंसा क्या होगी ? यदि जीव से प्राणों को भिन्न मानें तो फिर जीव के प्राणों का घात करने पर जीव का क्या बिगाड़ ? कुछ नहीं इससे इस तरह भी हिंसा न हुई । इसका आचार्य समाधान करते हैं कि कायादि प्राणों के साथ किसी अपेक्षा भेद है और कथंचित् अभेद है। किस कारण से है कि जैसे गरम लोहे के पिण्ड में से उस वर्तमानकाल में अग्नि अलग नहीं की जा सकती इसीतरह शरीर में जब धारमा तिष्ठा है तब उस वर्तमानकाल में उसे अलग नहीं कर सकते। इसकारण व्यवहारनय से प्राणों के साथ जीव का अभेद है । निश्चय से भेद है, क्योंकि मरण के समय काय, प्राण आदि जीव के साथ नहीं जाते । यदि एकान्त से जीव और प्रारणों का सर्वथा भेद माना जाय तो जैसे दूसरों के शरीर को छेदते भेदते हुए भी अपने को दुःख नहीं होता तैसे अपनी काय को भी छिदते हुए दुःख नहीं होना चाहिये सो बात नहीं है, क्योंकि हिंसा हुई निश्चय से नहीं हुई । इस पर प्रत्यक्ष से विरोधरूप है । फिर प्रश्नकर्ता कहता है कि व्यवहार से ही तो माचार्य कहते हैं कि यह बात तुमने सत्य कही। जैसे व्यवहार से हिंसा है वैसे पाप भी व्यवहार से है तथा नरक आदि के दु:ख भी व्यवहार से है, यह बात हमको सम्मत है। यदि नरकआदि के दुःखों से तुमको प्रीति है तो हिसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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