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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १३३५ गाथा १६१ की टीका के अन्त में भी अमृतचन्द्राचार्य लिखते हैं कि निश्चय मोक्षमार्ग और व्यवहार मोक्षमार्ग का साध्य-साधनपना अत्यन्त घटित होता है। इसीलिये श्री कुन्दकुन्द भगवान ने व्यवहारनय को प्रयोजनवान कहा है सुद्धोसुद्धादेसो णादश्वोपरमभावदरिसीहि । ववहारदेसिदा पुण जे दु अपरमेटिदा भावे ॥१२॥ [ स. सा. ] __ अर्थ-जो परमभाव को प्राप्त हो गये अर्थात् पूर्णज्ञान-चारित्रवान होगये उनको तो शुद्ध का उपदेश करने वाला शुद्धनय जानने योग्य है और जो जीव अपरमभाव अर्थात् श्रद्धान-ज्ञान-चारित्र के पूर्णभाव को नहीं पहुँच सके साधकअवस्था में ही ठहरे हुए हैं, वे व्यवहार द्वारा उपदेश करने योग्य हैं। इसकी टीका में सुवर्ण का दृष्टान्त देकर यह कहा गया है कि जिनको शुद्धसुवर्ण समान शुद्धात्मा की प्राप्ति हो गई है उनको उत्कृष्ट असाधारणभावों का अनुभव होने से शुद्धनय (निश्चयनय ) ही प्रयोजनवान है; किन्तु जो पुरुष प्रथम द्वितीयादि अनेक पाकों की परम्परा से पच्यमान अशुद्ध सुवर्ण के समान अनुत्कृष्ट-मध्यम भावों में स्थित हैं, उनको अनुत्कृष्टभावों का अनुभव होने से व्यवहारनय प्रयोजनवान है, क्योंकि तीर्थ के फल की ऐसी ही व्यवस्था है । टीका में इसीके प्रमाण स्वरूप यह गाथा भी उद्धृत की गई है जइ जिणमयं पवज्जह, तो मा ववहारणिच्छए मुयह । एकेण विणा छिज्जइ, तित्थंअण्णेण पुण तच्चं ॥ अर्थ हे भव्य जीवो ! जो तुम जिन मतको प्रवर्ताना चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय इन दोनों नयों को मत छोड़ो, क्योंकि व्यवहारनय के छोड़ने से तो तीर्थ ( मोक्ष-मार्ग ) का नाश हो जायगा और निश्चयनय के छोड़ने से तत्त्व (मोक्ष) का नाश हो जायगा। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिये जिनवचनों को सुनना, धारण करना, गुरुभक्ति, जिनबिम्ब-दर्शन आदि व्यवहारमार्ग में प्रवृत्त होना प्रयोजनवान है। जिनको सम्यग्दर्शन तो हो गया, किन्तु साक्षात् शुद्धात्मा की प्राप्ति नहीं हुई, उनको अणुव्रत-महाव्रत का ग्रहण, समिति-गुप्ति पालन पंचपरमेष्ठी का ध्यान, शास्त्र-अभ्यास आदि व्यवहारमार्ग प्रयोजनवान है। मोक्षमार्ग में प्राथमिक जीवों के लिये व्यवहारनय ही प्रयोजनवान है, इस बातको श्री १०८ अमृतचन्द्राचार्य पंचास्तिकाय गाथा १७२ की टीका में इसप्रकार कहते हैं 'व्यवहारनयेन भिन्नसाध्यसाधनभावमवलम्ब्यानादिभेदवासितबद्धयः सुखेनैवावतरन्ति तीथं प्राथमिकाः ।' अर्थ-अनादिकाल से भेदवासित बुद्धि होने के कारण प्राथमिक जीव व्यवहारनय से भिन्नसाध्य-साधनभाव का अवलम्बन लेकर सुख से तीर्थ ( मोक्षमार्ग ) का प्रारम्भ करते हैं। व्यवहारनय से बहुत से जीवों का उपकार होता है अतः व्यवहारनय का अनुसरण करना चाहिये । स्वयं गौतम गणधर ने व्यवहारनय का प्राश्रय लिया है। श्री वीरसेनस्वामी ने भी ज.ध. पु. १ में इसप्रकार कहा है - 'जो बहुजीवाणुग्गहकारी ववहारणओ सो चैव समस्सिदव्वो ति मणेणावहारिय गोदमथेरेण मंगलं तस्थ कयं।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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