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________________ १३३६ ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : अर्थ-जो व्यवहारनय बहुत जीवों का अनुग्रह करनेवाला है उसीका आभय करना चाहिये, ऐसा मन में निश्चय करके गौतम स्थविर ने चौबीस अनुयोगद्वारों के आदि में मंगल किया है। जब इन आगम प्रमाणों से यह सिद्ध हो जाता है कि व्यवहारनय भी मोक्षमार्ग में प्रयोजनवान है तो व्यवहारनय सर्वथा हेय कैसे हो सकता है ? शंका-क्या व्यवहारनय सर्वथा असत्य ( भूठ ) है ? समाधान–प्रत्येक नय अपने विषय में सत्य होता है, क्योंकि नय द्वारा किसी एक धर्म की मुख्यता से वस्तु का कथन होता है, किन्तु विवक्षितनय का विषय अपने प्रतिपक्षीनय की दृष्टि से असत् है। जैसे व्यवहारनय की दृष्टि से 'जीव कर्मों से बँधा हआ है' यह सत्य है, किन्तु निश्चय की दृष्टि से अबद्ध है अर्थात कर्मों से बँधा हा नहीं है । इसी बातको श्री अमृतचन्द्राचार्य समयसार की टीका में कहते हैं-'आत्मनोऽनादि बद्धस्य बद्धस्पृष्टत्वपर्यायणानुभूयमानतायां बद्धस्पृष्टत्वं भूतार्थमप्येकांततः पुद्गलास्पृश्यमात्मस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थ ।' अर्थ-अनादिकाल से बँधे हुए प्रात्मा का पुद्गलकर्मों से बँधने-स्पर्शित होनेरूप अवस्था का अनुभव करने पर ( व्यवहारनय से ) बद्धस्पृष्टता भूतार्थ है सत्यार्थ है, तथापि प्रात्मा पुद्गल से किचित्मात्र भी स्पर्शित होने योग्य नहीं है ऐसे आत्मस्वभाव को अनुभव करने पर ( निश्चयनय से ) बद्ध-स्पृष्टता अभूतार्थ है, असत्यार्थ है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि व्यवहारनय का विषय सत्यार्थ है, किन्तु मात्र निश्चयनय की दृष्टि से असत्यार्थ कहा गया है। जहाँ कहीं पर व्यवहारनय को अभूतार्थ या असत्यार्थ कहा गया है वहाँ पर मात्र की दृष्टि से असत्यार्थ कहा गया है। व्यवहारनय सर्वथा असत्यार्थ नहीं है। यदि व्यवहारनय स होता तो उसका उपदेश क्यों दिया जाता अथवा गौतम गणधर उसका प्राश्रय क्यों लेते ? किन्तु सर्वज्ञदेव ने व्यवहारनय का उपदेश दिया तथा श्री गौतम गणधर ने उसका आश्रय लेकर मंगल किया है इससे यह सिद्ध होता है कि व्यवहारनय भूतार्थ-सत्यार्थ है । श्री वीरसेनाचार्य ने जयधवल में कहा भी है ववहारणयं पडुच्च पुण गोदमसामिणा चदुवीसहमणियोगद्दाराणमादीए मंगलं कदं ण च ववहारणओ चप्पलओ; तत्तो ववहाराणुसारिसिस्साण पउत्तिदसणादो । ज.ध. पु. १ पृ.८ अर्थ-यदि कहा जाय कि व्यवहारनय असत्य है, सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि उससे व्यवहार का अनसरण करनेवाले शिष्यों की प्रवृत्ति देखी जाती है। श्री गौतम स्वामी ने व्यवहारनय का आश्रय ले अनुयोगद्वारों की आदि में मंगल किया है। जैनधर्म के मूल सिद्धान्त 'अनेकान्त' को समझने वाले विद्वान् कभी किसी नय को सर्वथा असत्यार्थ या हेय नहीं कहते हैं । अपितु अपने-अपने विषय की अपेक्षा उनको सत्यार्थ मानते हैं । जैसा कि ज० ध० पु० १ पृ० २५७ पर कहा गया है णिययवयणिज्ज सच्चा, सव्वणया परवियालणे मोहा । ते उण ण दिसमओ विभयइ सच्चे व अलिए वा॥ [सन्मति तर्क १।२८] ये सभी नय अपने-अपने विषय के कथन करने में समीचीन हैं और दूसरे नयों के निराकरण करने में मूढ़ हैं। अनेकान्तरूप समय के ज्ञाता पुरुष 'यह नय सच्चा है और यह नय झूठा है', इसप्रकार का विभाग नहीं करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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