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________________ १३३४ ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : हैं-द्रव्याथिक और पर्यायाथिक । वहाँ (दिव्यध्वनि में ) कथन एक नय के अधीन नहीं होता, किन्तु दोनों नयों के अधीन होता है।' श्री पंचास्तिकाय में श्री कुन्दकुन्दभगवान ने भी मोक्षमार्ग का उपदेश दोनों नयों के अधीन दिया है सम्मत्तणाणजुत्तं चारित्त रागदोसपरिहीणं । मोक्खस्स हवदि मग्गो भव्वाणं लद्धबुद्धीणं ॥१०॥ सम्मत्त सहहणं भावाणं तेसिमधिगमोणाणं। चारित्त समभावो विसयेसु विरूढ़मग्गाणं ॥१०७॥ धम्मादी सद्दहणं सम्मत्त णाणमंगपुव्वगदं। चेट्ठा तवंहि चरिया ववहारो मोक्खमग्गो त्ति ॥१०॥ अर्थ-सम्यक्त्व और ज्ञान से संयुक्त ऐसा चारित्र जो कि रागद्वेष से रहित हो वह लब्धबुद्धि भव्यजीवों को मोक्ष का मार्ग होता है । नवपदार्थों का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है, उनका अवबोध सम्यग्ज्ञान है, मार्ग में विरूढ़वालों का विषयों में जो समभाव है वह चारित्र है । धर्मादि अस्तिकाय का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है, अङ्ग पूर्व सम्बन्धी ज्ञान सो सम्यग्ज्ञान है और तप में चेष्टा सो चारित्र है। इसप्रकार श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने उक्त तीन गाथाओं में व्यवहार मोक्षमार्ग का उपदेश दिया है। वे ही कुन्दकुन्दाचार्य निश्चयमोक्षमार्ग का उपदेश इसप्रकार देते हैं णिच्छयणयेण भणिवो तिहि, तेहिं समाहिदो हु जो अप्पा । ण कुणदि किंचिवि अण्णं ण, मुयदि सो मोक्खमग्गो त्ति ॥१६१॥ अर्थ-जो प्रात्मा सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्र इन तीनों द्वारा वास्तव में समाहित होता हुआ अन्य कुछ भी करता नहीं या छोड़ता नहीं है वह निश्चय से मोक्षमार्ग कहा गया है। पंचास्तिकाय पृ०२३० पर श्री अमृतचन्द्राचार्य कहते हैं'--'इसप्रकार वास्तव में शुद्धद्रव्य के प्राश्रित, अभिन्न साध्य-साधनभाववाले निश्चयनय के प्राश्रय से मोक्षमार्ग का प्ररूपण किया गया। और जो पहले दर्शाया गया था वह स्वपरहेतुक पर्याय के आश्रित, भिन्न साध्य-साधनभाववाले व्यवहारनय के आश्रय से प्ररूपित किया गया था। इसमें परस्पर विरोध आता है ऐसा भी नहीं है, क्योंकि सुवर्ण और सुवर्णपाषाण की भाँति निश्चयव्यवहार का साध्य-साधनपना है। इसीलिये जिन भगवान का मार्ग, उपदेश या शासन निश्चय व व्यवहार, दोनों नयों के आधीन है। गाथा १६० की टीका में भी श्री अमृतचन्द्राचार्य कहते हैं--'व्यवहार मोक्षमार्ग निश्चय मोक्षमार्ग के साधनपने को प्राप्त होता है। जैसे सुवर्णपाषाण अग्नि के द्वारा शुद्ध होता है उसी प्रकार व्यवहार मोक्षमार्ग के द्वारा आत्मा शुद्ध होती है। जिसप्रकार सुवर्ण को शुद्धता स्वयं सुवर्ण की है अन्य द्रव्य में से नहीं आई उसीप्रकार निश्चयनय से वह शुद्धता आत्मा की है अन्य द्रव्य में से नहीं आती।' १ 'एवं हि शुद्धद्रव्याश्रितपभिन्नसाध्यसाधनावं निश्वयनयमाश्रित्य मोक्षमार्गप्ररूपणम् । यत्तु पूर्वमुद्दिष्टं वायपरप्रत्ययपर्यायाश्रितं भिन्नसाध्यसाधनभावं व्यवहारनयमाश्रित्य प्ररूपितम् । न तद्विप्रतिषिद्ध निश्चयव्यवहारयोः माध्यसाधनभावत्वासवर्णसुवर्णपाषाणपत् । अतएवोभयनवायत्ता परमेश्वरी तीर्थपवर्तनेति ।' [ रायथाद थमाला पंचास्तिकाय पृ. 230] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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