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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १३२९ जिसप्रकार निश्चयनय की अपेक्षा व्यवहारनय का विषय सत्य नहीं है अर्थात् अवस्तु है, उसीप्रकार व्यवहारनय की अपेक्षा निश्चय का विषय भी अवस्तु है । कहा भी है दव्वट्ठियवत्तव्वं अवत्थु णियमेण पज्जवणयस्सं । तह पज्जववत्थु अवत्थुमेव दवट्ठियणयस्स ॥१०॥ [सं० त०] अर्थ-जिसप्रकार पर्यायष्टिवाले के अर्थात व्यवहारनयावलम्बी के निश्चयनय अर्थात द्रव्याथिकनय का कथन नियम से अवस्तु है उसीप्रकार द्रव्याथिकदृष्टिवाले के निश्चयनयावलम्बी के पर्यायाथिक अर्थात् व्यवहारनय का विषयभूत पदार्थ अवस्तु है ।। कहीं-कहीं पर पागम में यह कहा गया है कि निश्चयनय भूतार्थ का कथन करता है और व्यवहारनय अभूतार्थ का कथन करता है । जैसे समयसार गाथा ११ में कहा है-- 'ववहारोऽभूयत्यो भूयत्थो देसिदो दु सुद्धणओ।' अर्थात्-व्यवहारनय अभूतार्थ है और निश्चयनय भूतार्थ है। श्री अमृतचन्द्राचार्य ने भी पुरुषार्थसिद्धिउपाय श्लोक ५ में कहा है निश्चयमिह भूतार्थ व्यवहारं वर्णयन्त्यभूतार्थम् । अर्थात्-निश्चयनय भूतार्थ है और व्यवहारनय अभूतार्थ है । यहाँ पर भूतार्थं और प्रभूतार्थ शब्दों का अर्थ विचारा जाता है । भूतार्थ शब्द 'भूत' और 'अर्थ' इन दो शब्दों से मिलकर बना है। 'भूत' शब्द का अर्थ 'द्रव्य' भी है (हिन्दी शब्दसागर पृ० ७६०) और existing (विद्यमान) भी है ( Sanskrit-English dictionary P 409 )। - 'अर्थ' शब्द का अर्थ 'प्रयोजन, अभिप्राय' भी है और 'पदार्थ' भी है। इसीप्रकार 'भूतार्थ' शब्द का अर्थ 'द्रव्य प्रयोजनवाला' अथवा 'विद्यमान पदार्थ' इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि निश्चयनय का प्रयोजन (विषय ) द्रव्य है इसलिये निश्चयनय भूतार्थ है। अथवा निश्चयनय का विषय 'सदा विद्यमान पदार्थ' है अर्थात् वस्तु का ध्र व अंश है इसलिये निश्चयनय भूतार्थ है । अभूतार्थ शब्द में 'अ' के अर्थ इसप्रकार हैं प्रतिषेधयति समस्तं प्रसक्तमथं तु जगति नोशब्दः । स पुनस्तदवयवे वा तस्मादर्थान्तरे व स्यात् ॥ ( ध. पृ. ५ पृ. ४४ ) अर्थ-जगत् में 'न' यह शब्द प्रसक्त समस्त अर्थ का तो प्रतिषेध करता है। किन्तु व प्रसक्त अर्थ के अवयव अर्थात् एकदेश में अथवा उससे भिन्न अर्थ में रहता है । अतः 'अभूत' का अर्थ 'द्रव्य से भिन्न अर्थ अर्थात् पर्याय' । अथवा 'ईषत् विद्यमान पदार्थ अर्थात् पर्याय'। वस्तु के द्रव्य अंश (ध्र व अंश ) के समान पर्याय सदा विद्यमान नहीं रहती, किन्तु किंचित् काल तक विद्यमान रहती है। व्यवहारनय का विषय या प्रयोजन पर्याय है अतः व्यवहारनय अभूतार्थ है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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