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________________ १३३० ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : यहाँ पर भूतार्थ का अर्थ झूठ नहीं है। यदि अभूतार्थ का अर्थ झूठ मान लिया जावे तो व्यवहारनय झूठ हो जायगी। झूठ के द्वारा अज्ञानी जीवों को यथार्थ नहीं समझाया जा सकता और न झूठ के द्वारा परमार्थ का उपदेश दिया जा सकता है। झूठ किसी को भी प्रयोजनवान नहीं हो सकता और न पूज्य हो सकता है, किन्तु पार्षग्रन्थों में कहा है कि व्यवहार के द्वारा अज्ञानी जीव संबोधे जाते हैं, परमार्थ का उपदेश दिया जाता है तथा व्यवहारनय प्रयोजनवान है और पूज्य है । 'अबुधस्य बोधनार्थ मुनीश्वरा देशयन्त्य भूतार्थम् ।' (पु० सि० उ० श्लोक ६ )। आचार्य महाराज अज्ञानी जीवों को संबोधने के लिये व्यवहारनय का उपदेश देते हैं। 'तह ववहारेण विणापरमत्युवएसणमसक्कं ॥८॥ ( समयसार ) अर्थात्-व्यवहार के बिना परमार्थ का उपदेश देना अशक्य है। ( इसका यह अर्थ कभी नहीं हो सकता कि 'झूठ के बिना परमार्थ का उपदेश देना अशक्य है।' ) ववहारदेसिदा पुण जे तु अपरमेट्टिदा भावे ॥१२॥ ( समयसार )। अर्थात्-जो अनुत्कृष्ट अवस्था में स्थित हैं उनको व्यवहारनय का उपदेश प्रयोजनवान है। जइ जिणमयं पवज्जइ तो मा ववहार णिच्छए मुयह । एक्केण विणा छिज्जइ तित्थं अण्णेण उण तच्चं ॥ अर्थात्-यदि तुम जिनमत की प्रवर्तना करना चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय दोनों को छोड़ो। क्योंकि व्यवहार के बिना मोक्षमार्ग (तीर्थ) का नाश हो जायगा और निश्चय के बिना तत्त्व ( तीर्थफल ) का नाश हो जायगा। 'तीर्थतीर्थफलयोरित्थमेव व्यवस्थितत्वात् ।' तीर्थ और तीर्थफल की ऐसी व्यवस्था होती है। ( समयसार गाथा १२ टीका)। इसलिये शुद्धनय का विषय जो शुद्धात्मा, उसकी प्राप्ति जब तक न हो तब तक व्यवहारनय प्रयोजनवान है। पद्मनन्दि पञ्चविंशति का श्लोक ६०८ में 'व्यवहृतिः पूज्या।' इन शब्दों द्वारा 'व्यवहारनय पूज्य है', ऐसा कहा है। इन पार्षवाक्यों के विरुद्ध 'व्यवहारनय' को झूठ, हेय, छोड़ने योग्य कसे कहा जा सकता है। निश्चय और व्यवहार की अपेक्षा वस्तु को स्याद् नित्य, स्यादनित्य माननेवाले का ज्ञान भ्रमात्मक कैसे हो सकता है । अनेकान्त और स्याद्वाद के द्वारा ही इस जीव का कल्याण हो सकता है। ----जं. ग. 31-12-64; 14-1-64/Pages 9-12, 9-10 र. ला. जैन, मेरठ नयों की हेयोपादेयता; व्यवहार को हेय मानने में दोष शंका-क्या निश्चयनय उपादेय और व्यवहारनय हेय है ? समाधान-अध्यात्म में द्रव्यार्थिकनय को निश्चयनय और पर्यायाथिकनय को व्यवहारनय कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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