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________________ १३२८ ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि मो० मा०प्र० में स्वयं दो प्रकार का कथन पाया जाता है। अतः पृ० ३६६ व ३६९ के उपदेश को सर्वथा न समझ लेना चाहिये। मो० मा०प्र० में स्वयं कहा है-'इसलिये जो उपदेश हो उसको सर्वथा न समझ लेना चाहिये। उपदेश के अर्थ को जानकर वहाँ इतना विचार करना चाहिये कि यह उपदेश किसप्रकार है, किस प्रयोजन को लेकर है और किस जीव को कार्यकारी है।' जो पृ० ३६६ व ३६९ के कथन को सर्वथा मान बैठे हैं क्या वे मोक्षमार्गप्रकाशक की स्वाध्याय करनेवाले कहे जा सकते हैं ? ___ यहाँ तक निश्चयनय व व्यवहारनय के सम्बन्ध में मोक्षमार्गप्रकाशक के अनुसार कथन हुआ । अब पार्षग्रन्थ के अनुसार कथन किया जाता है। यदि यह कहा जाय कि निश्चयनय की दृष्टि में व्यवहारनय का विषय अभूतार्थ है, तो इससे यह सिद्ध नहीं होता कि व्यवहारनय का विषय सर्वथा अभूतार्थ है। दूसरे जिसप्रकार निश्चयनय की दृष्टि में व्यवहारनय का विषय अभूतार्थ है उसीप्रकार व्यवहारनय की दृष्टि में निश्चयनय का विषय अभूतार्थ है। इन दोनों कथनों के समर्थन में पार्षवाक्य इसप्रकार हैं ____ 'ननु सौगतोपि ब्र ते व्यवहारेण सर्वज्ञः, तस्य किमिति दूषणं दीयते भवद्भिरिति ? तन्त्र परिहारमाहसौगतादिमते यथा निश्चयापेक्षया व्यवहारो मृषा, तथा व्यवहाररूपेणापि व्यवहारो न सत्य इति । जनमते पुनर्व्यवहारनयो यद्यपि निश्चयापेक्षया मृषा तथापि व्यवहाररूपेण सत्य इति । यदि पुनर्लोकव्यवहाररूपेणापि सत्यो न भवति तहि सर्वोपि लोकव्यवहारो मिथ्या भवति, तथा सत्यतिप्रसंगः । एवमारमा व्यवहारेण परद्रव्यं जानाति पश्यति निश्चयेन पुनः स्वद्रव्यमेवेति' । ( समयसार गाथा ३६१ टीका ) अर्थ इसप्रकार है प्रश्न-जैसे कुन्दकुन्दभगवान ने गाथा ३६१ में 'परद्रव्य को व्यवहारनय से जानता है।' उसीप्रकार बौद्ध भी व्यवहारनय से सर्वज्ञ कहते हैं । फिर आप बौद्धों का क्यों खण्डन करते हैं। उत्तर-जैसे निश्चयनय की अपेक्षा बौद्ध व्यवहारनय को झूठ मानते हैं उसीप्रकार व्यवहाररूप से भी व्यवहार को सत्य नहीं मानते, किन्तु जैनमत में यद्यपि निश्चयनय की अपेक्षा व्यवहारनय झठा है तथापि व्यवहाररूप से सत्य है। यदि व्यवहारनय लोक व्यवहाररूप से भी सत्य न हो तो समस्तलोक व्यवहार मिथ्या हो जायगा और ऐसा होने से अतिप्रसंगदोष पाजायगा। यह प्रात्मा व्यवहारनय से परद्रव्य को जानता देखता है और निश्चयनय से स्वद्रव्य को जानता देखता है । श्री समयसार गाथा १४ की टीका में भी कहा है-'आत्मनोऽनादिबद्धस्य बद्धस्पृष्टत्वपर्यायेनानुभूयभावतायां बद्धस्पृष्टत्वं भूतार्थमप्येकांततः पुद्गलास्पृश्यमात्मस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थ .....' अर्थ-अनादिकाल से बंधे हुए प्रात्मा का पर्याय से ( व्यवहारनय से ) अनुभव करने पर बद्धस्पृष्टता भतार्थ है, तथापि पुदगल से किंचितमात्र भी स्पशित न होने योग्य प्रात्मस्वभाव के समीप जाकर अनभव करने पर ( निश्चयनय से ) बद्धस्पृष्टता अभूतार्थ है। जिनको उपर्युक्त आर्ष पर श्रद्धा नहीं है और यह मानते हैं कि जैसा व्यवहारनय का कथन है वैसा नहीं है उनके मत में सर्वज्ञता सिद्ध नहीं होती और न जिनवाणी सिद्ध होती है तथा द्वादशांग की रचना, शास्त्ररचना भी सिद्ध नहीं होती, क्योंकि यह सब व्यवहारनय का विषय सत्य नहीं है अर्थात अवस्तु है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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