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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १३११ महासत्ता की अपेक्षा अवान्तर सत्ता असत् है और अवान्तर सत्ता की अपेक्षा महासत्ता असत् है। इसप्रकार सत्ता की प्रतिपक्ष असत्ता भी है। पत्रकार सत्ता श्री अमृतचन्द्राचार्य ने इस गाथा ८ की टीका में कहा भी है "द्विविधा हि सत्ता महासत्तावान्तरसत्ता च । तत्र सर्वपदार्थसार्थव्यापिनी सादृश्यास्तित्वसूचिका महासत्ता प्रोक्तव । अन्या तु प्रतिनियतवस्तुवर्तिनी स्वरूपास्तित्वसूचिकाऽवान्तरसत्ता। तत्र महासत्ताऽवान्तरसत्तारूपेणऽसत्ताऽवान्तरसत्ता च महासत्तारूपेणासत्त त्यसत्तासत्तायाः । अर्थ-सत्ता दो प्रकार की है—महासत्ता और अवान्तर सत्ता। उनमें सर्वपदार्थ समूह में व्याप्त होने वाली, सादृश्यास्तित्व को सूचित करनेवाली महासत्ता अथवा सामान्यसत्ता अथवा सादृश्यसत्ता है। दूसरी प्रत्येक पदार्थ में अथवा वस्त में निश्चितरूप से रहनेवाली, स्वरूप अस्तित्व को सूचित करनेवाली अवान्तरसत्ता अथवा विशेषसत्ता है। वहाँ महासत्ता अवान्तरसत्तारूप से असत्ता हैं और अवान्तरसत्ता महासत्तारूप से असत्ता है। इसलिये सत्ता का प्रतिपक्ष असत्ता है । श्री जयसेनाचार्य ने भी कहा है—'शुद्धसंग्रहनय विवक्षायामेका महासत्ता अशुद्धसंग्रहनय विवक्षायां व्यवहारनयविवक्षायां वा सर्वपदार्थसविश्वरूपाद्यवान्तरसत्ता ।....अथवैका महासत्ता शुद्धसंग्रहनयेन, सर्वपदार्थाद्यवान्तरसत्ता व्यवहारनयेनेति नयद्वयव्याख्यानं कर्तव्यं ।" अर्य-शुद्धसंग्रहनय की अपेक्षा एक महासत्ता है, अशुद्धसंग्रहनय की अर्थात् व्यवहारनय की अपेक्षा से सर्वपदार्थों में अपने-अपनेरूप से रहनेवाली अर्थात नानारूप वाली अवान्तर सत्ता है। अथवा महासत्ता शुद्धसंग्रहनय का विषय है तथा सर्वपदार्थों में पृथक्-पृथकरूप से रहनेवाली अवान्तरसत्ता व्यवहारनय का विषय है। ऐसे दोनों नयों से व्याख्यान करना योग्य है। शुद्धसंग्रहनय को परसंग्रह नय और अशुद्धसंग्रहनय को अपरसंग्रहनय भी कहते हैं। ये दोनों नय यदि परस्पर सापेक्ष हैं तो सम्यक् हैं यदि निरपेक्ष हैं तो मिथ्या हैं । श्री समन्तभद्राचार्य ने श्री विमलजिन का स्तवन करते हुए स्वयम्भूस्तोत्र में कहा भी है य एव नित्य-क्षणिकादयो नया, मिथोऽनपेक्षाः स्वपर-प्रणाशिनः । त एव तत्त्वं विमलस्य ते मुनेः परस्परेक्षाः स्वपरोपकारिणः ॥६० ॥ नित्य, क्षणिकादि नय परस्पर में निरपेक्ष होने से स्वपर दोनों का नाश करनेवाले हैं इसलिये दुर्नय अर्थात मिथ्या हैं । वे ही नय परस्पर सापेक्ष होने से ( एक दूसरे की अपेक्षा रखने से ) अपना और पर का भला करने वाले हैं, इसलिये सम्यग्नय हैं। "निरपेक्षाः नयाः मिथ्यासापेक्षा वस्तुतेऽर्थकृत् ।" ( स्वा० का० अनु० गा० २६२ की टीका ) निरपेक्षनय मिथ्या और सापेक्षनय वस्तुसाधक हैं। तम्हा मिच्छादिट्टी सव्वे वि णया सपक्खपडिबद्धा । अण्णोण्णाणिस्सिया उण लहंति सम्मत्त सम्भावं ॥ १०२॥ ज.ध.पु.१पृ. २४९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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