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________________ १३१० ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : श्री देवसेनाचार्य ने आलापपद्धति में द्रव्य के २१ स्वभाव कहे हैं " स्वभावाः कथ्यन्ते । अस्तिस्वभावः, नास्तिस्वभावः, नित्यस्वभावः, नित्यअनित्यस्वभावः, एक स्वभावः, अनेकस्वभावः, भेदस्वभावः, अभेदस्वभावः, भव्यस्वभावः, अभव्यस्वभावः, परमस्वभावः द्रव्याणामेकादशसामान्यस्वभावाः, चेतनस्वभावः अचेतनस्वभावः, मूर्तस्वभावः, अमूर्त स्वभाव:, एकप्रदेशस्वभाव:, अनेकप्रदेशस्वभाव:, विभावस्वभावः, शुद्धस्वभाव:, अशुद्धस्वभाव:, उपचरितस्वभावः, एते द्रव्याणां दश विशेषस्वभावाः । जीवपुद्गलयोरेकविंशतिः । " अर्थ -- स्वभाव का कथन किया जाता है । अस्तिस्वभाव, नास्तिस्वभाव, नित्यस्वभाव, अनित्यस्वभाव, एकस्वभाव, अनेकस्वभाव, भेदस्वभाव, अभेदस्वभाव, भव्यस्वभाव, अभव्यस्वभाव, परमस्वभाव, द्रव्यों के ये ग्यारह सामान्यस्वभाव हैं । चेतनस्वभाव, अचेतनस्वभाव, मूर्तस्वभाव, अमूर्तस्वभाव, एक प्रदेशस्वभाव, अनेक प्रदेशस्वभाव विभाव स्वभाव, शुद्ध स्वभाव, अशुद्ध स्वभाव, उपचरित स्वभाव ये द्रव्यों के दश विशेषस्वभाव हैं । जीव और पुद्गल में ये २१ स्वभाव होते हैं । यहाँ पर जीव में भी अचेतन व मूर्तस्वभाव कहा गया है जब कि अचेतनत्व और मूर्तस्व पुद्गल के गुण हैं । पद्गल में चेतनस्वभाव और अमूर्तस्वभाव कहा गया है। जबकि चेतनत्व और अमूर्तत्व जीव के गुण हैं । श्री प्रवचनसार गाथा ९३ की टीका में श्री अमृतचन्द्राचार्य ने भी कहा है "तत्रानेकद्रव्यात्मके क्यप्रतिपत्तिनिबन्धनो द्रव्यपर्यायः । स द्विविधः, सामान्यजातीयोऽसमानजातीयश्च । तत्र समानजातीयो नाम यथा अनेक पुद्गलात्मकोद्वयणुकस्त्रयणुक इत्यादिः, असमानजातीयो नाम जीवपुद्गलात्मको देवो मनुष्य इत्यादिः । " अर्थ - श्रनेकद्रव्य मिलकर जो एक पर्याय होती है सो द्रव्यपर्याय है । यह द्रव्यपर्याय दो प्रकार है, एक समानजातीय, दूसरा श्रसमानजातीय । समान जातीय जैसे अनेक पुद्गलरूप द्वयणुक, त्रिश्रणुक आदि । श्रसमानजातीय जैसे जीव और पुद्गल मिलकर देव, मनुष्य आदि पर्याय । इससे सिद्ध होता है कि जीव और पुद्गल की मिलकर एकपर्याय होती है जो असमानजाति द्रव्यपर्याय है । नय विवक्षा से आर्ष ग्रन्थों के उपर्युक्त वाक्यों का कथन सिद्ध हो जाता है । अनेकान्तदृष्टि में यह सब सुघटित हो जाता है और एकान्तदृष्टि से इन सब आर्षवाक्यों में विरोध दिखाई देता है । - जै. ग. 15-11-65/9-10 / ज्ञानचन्द किसी नय को परमार्थभूत तथा किसी को प्रपरमार्थभूत कहना ठीक नहीं शंका- तत्त्वमीमांसा में श्री पं० फूलचन्दजी ने महासत्ता को विषय करने वाले परसंग्रहनय को परमार्थभूत कहा और अपरसंग्रहनय को अपरमार्थभूत कहा है । इसकी समीक्षा में यह कहा गया है 'परसंग्रहनय के उदाहरण में महासत्ता को स्वीकार कर अपरसंग्रहनय को अपरमार्थभूत ठहराना सर्वथा आगमविरुद्ध है, क्योंकि जिस महासत्ता में अवान्तरसत्ता विद्यमान नहीं है, वह महासता भी कैसी ।' इस पर शंका यह है कि अवान्तर सत्ता कौनसी है ? समाधान - विश्व में जितने भी पदार्थ हैं वे सब सप्रतिपक्ष हैं। इसीलिये श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने पंचास्तिकाय गाथा ८ में 'सव्वपयत्था सप्पडिवक्खा' कहा है। इस सिद्धान्त के अनुसार महासत्ता की प्रतिपक्ष प्रवान्तरसत्ता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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