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________________ १३१२ ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : केवल अपने-अपने पक्ष से प्रतिबद्ध ये सभी नय मिथ्या हैं, परन्तु यदि ये सभी नय परस्पर सापेक्ष हों तो समीचीनपने को प्राप्त होते हैं ( तब सम्यक् हैं )। णिययवयणिज्जसच्चा सव्वणया परवियालणे मोहा। ते उण ण दिसमओ विभयई सच्चे व अलिए वा ॥ ज.ध.पु. १ पृ. ३५७ तणना ये सभी नय अपने-अपने विषय के कथन करने में समीचीन हैं और दूसरे नयों के निराकरण में मूढ़ हैं। अनेकान्तरूप समय के ज्ञाता पुरुष 'यह नय सच्चा है और यह झूठा है'; इसप्रकार का विभाग नहीं करते हैं। अतः किसी नय को परमार्थभूत और किसी नय को अपरमार्थभूत कहना आर्षग्रन्थ विरुद्ध है । -जं. ग. 8-8-68/VI/ रोशनलाल सभी सापेक्ष नय सम्यक् हैं । शंका--व्यवहारनय भूतार्थ है या अभूतार्थ है ? यदि भूतार्थ है तो क्यों ? यदि अभूतार्थ है तो क्यों ? भूतार्थ और अभूतार्थ से क्या अभिप्राय है ? समाधान-शंका से ऐसा प्रतीत होता है कि शंकाकार का अभिप्राय अध्यात्म व्यवहारनय से है। अतः अध्यात्मदृष्टि से इस शंका का समाधान होगा । सर्व प्रथम नयके लक्षण पर विचार किया जाता है। प्रमाण के द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थ के एकदेश में वस्तु के निश्चय करने को नय कहते हैं। अनन्तपर्यायात्मक वस्तु की किसी एकपर्याय का ज्ञान करते समय निर्दोष युक्ति की अपेक्षा से जो दोषरहित प्रयोग किया जाता है वह नय है। जो प्रमाण के द्वारा प्रकाशित किये गये अर्थ के विशेष का कथन करता है वह नय है। यह नय, पदार्थों का जैसा स्वरूप है उसरूप से उनके ग्रहण करने में निमित्त होने से मोक्ष का कारण है । जिसप्रकार प्रमाण से वस्तु का बोध होता है उसीप्रकार नय वाक्य से भी वस्तु का ज्ञान होता है, यह देखकर तत्त्वार्य सूत्र में 'प्रमाणनयैरधिगमः' इसप्रकार प्रतिपादन किया है (ज.ध. पु. १ पृ. २०९ ) पद के उच्चारण करने पर और उसमें किये गये निक्षेप को देखकर ( समझकर ) यहाँ पर इस पद का क्या अर्थ है इसप्रकार ठीक रीति से अर्थ तक पहुँचा देते हैं अर्थात ठीक-ठीक अर्थ का ज्ञान कराते हैं, इसलिये वे नय हैं । (ध. पु. १ पृ. १०) जितने वचनमार्ग हैं उतने ही नयवाद हैं और जितने नयवाद हैं उतने ही परसमय हैं । परसमयों का वचन सर्वथा कहा जाने से मिथ्या है और जैनों का वचन कथंचित् कहा जाने से सम्यक् है। (प्रवचनसार परिशिष्ट ) १. "प्रमाणपरिगृहीतार्थेकदेशेवस्त्वष्यवसायो नयः।" ( पु. १ पृ. ८3; प. प. पु. १ पृ. १ प १६)। 2 "अनन्तपर्यायात्मकस्य वस्तुनोऽग्यतमपर्यायाधिगमे कर्तव्ये जात्ययुक्त्यपेक्षो निरपद्यप्रयोगो नयः। (ज. प. पु. १ पृ. ११०) 3. "प्रमाणपकारितार्थविशेषप्ररूपको नयः ।" ( ज. प. पु. १ पृ. २१०)। ४. "स एष याथात्म्योपलब्धिनिमित्तत्वादभावानां श्रेयोपदेनः ।" ( ज. प. पु. १ पृ.११) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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