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________________ १३०८ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : "तेषामर्थानामस्तित्वनास्तित्वनित्यानित्याद्यनन्तात्मनां जीवादीनां ये विशेषाः पर्यायाः, तेषां प्रकर्षेण रूपकः प्ररूपकः निरुद्धदोषानुषङ्गाद्वारेणेत्यर्थः स नयः ।" [ ज.ध. पु. १ पृ. २१० ] अर्थ-अस्तित्व, नास्तित्व, नित्यत्व, अनित्यत्व आदि अनन्तधर्मात्मक जीवादिपदार्थों का जो विशेष अर्थात् पर्याय है उनका प्रकर्ष से ( दोष के सम्बन्ध से रहित होकर ) जो प्ररूपण करता है वह नय है। "प्रमाणप्रकाशितार्थविशेषप्ररूपको नयः ।" अर्थात-जो प्रमाण के द्वारा प्रकाशित किये गये अर्थ के किसी एक धर्म का कथन करता है वह नय है। किसी एकधर्म की मुख्यता से जो वस्तु का ज्ञान होता है वह नय है । लोयाणं ववहारं धम्म विवक्खाइ जो पसाहेदि । सुय-णाणस्स वियप्पो सो वि णओ लिंग-सभूदो ॥ २६३ ॥ [ का. अ.] अर्थ-~-जो वस्तु के एकधर्म की विवक्षा से लोकव्यवहार को साधता है वह नय है । नय श्र तज्ञान का भेद है तथा लिंग से उत्पन्न होता है । अध्यात्म में उस नय के दो भेद कहे हैं निश्चय और व्यवहार। निश्चयनय भी शुद्धनिश्चयनय और अशुद्धनिश्चयनय के भेद से दो प्रकार का है। व्यवहारनय भी सद्भुत और असद्भूत के भेद से दो प्रकार का है। आलापपद्धति में श्री देवसेनाचार्य ने इसप्रकार कहा है "तावन्मूलनयो द्वौ निश्चयो व्यवहारश्च । तत्र निश्चयनयोऽभेदविषयो। व्यवहारो भेदविषयः। तत्र निश्चयो द्विविधः शुद्धनिश्चयोऽशुद्ध निश्चयश्च । व्यवहारो द्विविधः सद्भूतव्यवहारोऽसद्भूतव्यवहारश्च । तत्रैकवस्तुविषयः सद्भूतव्यवहारः, भिन्न वस्तुविषयोऽसद्भूतव्यवहारः ।" अर्थ-मूलनय दो हैं निश्चय और व्यवहार । निश्चयनय अभेद और व्यवहारनय भेद को विषय करनेवाला है। निश्चयनय के दो भेद हैं शुद्धनिश्चयनय और अशुद्ध निश्चयनय । व्यवहारनय दो प्रकार का है सद्भूतव्यवहार और असद्भूतव्यवहार । एक ही वस्तु को भेदरूप ग्रहण करे तो सद्भुतव्यवहारनय है तथा भिन्न-भिन्न वस्तुओं को सम्बन्धरूप ग्रहण करे सो असद्भूतव्यवहारनय है । "असद्भूतव्यवहारो विविधः उपचरितानुपचरितभेदात् । तत्रसंश्लेषरहितवस्तुसंबंधविषय उपचरितासद्भूतव्यवहारो यथा देवदत्तस्य धनमिति । संश्लेषसहितवस्तुसम्बन्धविषयोऽनुपचरितासद्भूतव्यवहारो यथा जीवस्य शरीरमिति ।" अर्थ-असद्भूतव्यवहारनय दो प्रकार का है उपचरित अनुपचरितभेदसे । एकक्षेत्रावगाहसम्बन्धरहित वस्तुओं को सम्बन्धरूप से ग्रहण करे सो उपचरित-असद्भूत व्यवहारनय है। जैसे देवदत्त का धन इत्यादि । एकक्षेत्रावगाह पदार्थों को सम्बन्धरूप ग्रहण करे सो अनुपचरित-असद्भुत-व्यवहारनय है। जैसे जीव का शरीर इत्यादि । शंकाकार का यह लिखना आत्मा में ज्ञान तो निश्चय तथा पुद्गल में वर्ण सो निश्चय । यह उचित नहीं है, क्योंकि ये वाक्य गुण-गुणी में भेद के द्योतक हैं । 'भेद' व्यवहारनय का विषय है जैसा कि उपर्युक्त आगम में कहा गया है अथवा समयसार में भी कहा गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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