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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १३०७ श्री अमृतचन्द्राचार्य ने भी समयसार गाथा ४६ की टीका में कहा है "तमंतरेण तु शरीराज्जीवस्य परमार्थतो भेददर्शनात् बसस्थावराणां भस्मन इव निःशंकमुपमर्दनेन हिंसाऽभावाद्भवत्येव बंधस्याभावः । तथा रक्तोद्विष्टोविमूढो जीवो बध्यमानो मोचनीय इति तमन्तरेण तु रागद्वेष मोहेभ्यो जीवस्य परमार्थतो भेव दर्शनेन मोक्षोपाय परिग्रहणाभावात् भवत्येव मोक्षस्याभावः।" यदि व्यवहारनय को न कहा जावे अर्थात् यदि व्यवहारनय का उपदेश न दिया जाय और परमार्थनय (निश्चयनय ) जो जीव को शरीर से भिन्न कहता है, यह एकांत किया जाय तो निःशंकपने से त्रस-स्थावर जीवों का घात करना सिद्ध हो जायगा । जैसे भस्म के मर्दन करने में हिंसा का अभाव है, उसी तरह बस-स्थावर जीवों के मारने में भी हिंसा सिद्ध नहीं होगी, अपितु हिंसा का प्रभाव ठहरेगा तब जीवों के घात होने से बन्ध का भी अभाव ठहरेगा। परमार्थ (निश्चय ) नय से रागद्वेषमोह से जीव को भिन्न दिखाया है, अतः रागी-द्वेषी, मोहीजीव कर्म से बँधता है, उसको छुड़ाना है ऐसा मोक्षमार्ग का उपदेश व्यर्थ हो जायगा। तब मोक्ष का भी प्रभाव ठहरेगा। निश्चयनय से न बन्ध है और न मोक्ष है इससे जिनेन्द्र द्वारा दिया गया मोक्षमार्ग का उपदेश व्यर्थ हो जाता है। पंचास्तिकाय में भी कहा है"व्यवहारनयेन भिन्नसाध्य साधनभावमवलम्ब्यानादिभेदवासितबुद्धयः सुखेनैवावतरन्ति तीर्थ प्राथमिकाः ।" अर्थ-अनादिकाल से भेदवासित बुद्धि होने के कारण प्राथमिकजीव व्यवहारनय से भिन्न साध्य-साधनभावका अवलम्बन लेकर सुख से ( सुगमरूप से ) तीर्थ ( मोक्षमार्ग ) अवतरण करते हैं । -जे. ग. 11-12-69/VI/ र. ला जैन (१) निश्चय व्यवहार का स्वरूप-विवेचन (२) द्रव्यों के सामान्य तथा विशेष स्वभाव शंका-आत्मा का निश्चय तो आत्मा में है, किन्तु आत्मा का व्यवहार पर में है ? या आत्मा का निश्चय-व्यवहार आत्मा में है और पुद्गल का निश्चय-व्यवहार पुद्गल में है, जैसे आत्मा में ज्ञान तो निश्चय और जानना उसका व्यवहार है, तथा पुद्गल में वर्ण सो निश्चय और पीत-पनपना सो व्यवहार अर्थात् द्रव्य सो निश्चय और परिणमन सो व्यवहार, क्या ऐसा निश्चयव्यवहार का स्वरूप है ? समाधान-'निश्चय या व्यवहार' द्रव्य, गुण या पर्याय नहीं है। अतः यह प्रश्न ही नहीं उठता कि आत्मा का निश्चय तो आत्मा में है और प्रात्मा का व्यवहार पर में है, अथवा पुद्गल का निश्चय-व्यवहार पुद्गल में है। निश्चय और व्यवहार ये दो नय हैं। इसलिये सर्व प्रथमनय का लक्षण कहा जाता है उच्चारियमत्थपदं णिक्खेवं वा कयं तु दण । अत्थं जयंति तच्चतमिदि तदो ते णया भणिया ॥ध. पु. १ पृ. १० अर्थ-उच्चारण किये गये अर्थपद और उसमें किये गये निक्षेप को देखकर अर्थात् समझकर पदार्थ को ठीक निर्णय तक पहुंचा देता है, इसलिये वे नय कहलाते हैं। मोक्षशास्त्र में भी "प्रमाणनयरधिगमः" द्वारा यह कहा गया है कि नय से वस्तु का बोध होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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