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________________ १३०६ ] अस्यार्थः - श्रेयसो मोक्षस्य अपदेशः कारणम्; भावानां यथात्म्योपलब्धिनिमित्तभावात् । " [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : अर्थ :- नय का कथन किसलिये किया जाता है ? यह नय पदार्थों का जैसा स्वरूप है उसरूप से उनके ग्रहण करने में कारण है, इसलिये नय का कथन किया जाता है । शब्दार्थ यह है कि नय श्रेयस् अर्थात् मोक्ष के उपदेश का काररण है, क्योंकि वह पदार्थों के यथार्थरूप से ग्रहण करने में निमित्त है । " स एष नयो द्विविधः द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिकश्चेति । " अर्थ -- वह नय दो प्रकार का है- द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिकनय । श्री अमृतचन्द्राचार्य ने भी पंचास्तिकाय गाथा ४ की टीका में कहा है- "द्वौ हि नयौ भगवता प्रणीतौ द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिकश्च । तत्र न खल्वेकनयायत्ता देशना, किन्तु तदुभयायत्ता।" ज. ध. पु. १ पृ. २११ । अर्थ - - भगवान ने दो ही नय कहे हैं -द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक । दिव्यध्वनि में कथन एकनय के प्राधीन नहीं होता है, किन्तु दो नयों के प्राधीन होता है । " द्रव्यमेवप्रयोजनमस्येति द्रव्यार्थिकः । पर्याय एवार्थः प्रयोजनमस्येति पर्यायार्थिकः ।" (आलापपद्धति) जिस नय का प्रयोजन ( विषय ) द्रव्य ही है वह द्रव्यार्थिकनय है । जिस नय का प्रयोजन पर्याय ही है, वह पर्यायार्थिकन है । णिच्छयववहारणया मूलमभेया गयाण सव्वाणं । णिच्छय साहणहेओ दव्वपज्जत्थिया मुणह ॥ आलापपद्धति । अर्थ —नयों में मूलभूत निश्चय और व्यवहार ये दो नय माने हैं । उनमें से निश्चय नय द्रव्याश्रित और व्यवहारय पर्यायाश्रित है ऐसा समझना चाहिये । इस प्रकार द्रव्यार्थिकनय का ही नामान्तर निश्चयनय है और पर्यायार्थिकनय का ही नामान्तर व्यवहारनय है । इन दोनों ही नयों के द्वारा वस्तु का यथार्थज्ञान होता है । व्यवहारनय असत्य ( झूठ ) भी नहीं है, क्योंकि इसका श्री गौतम गणधर ने कथन किया है । ज. ध. पु. १ पृ. ८ पर कहा भी है Jain Education International "ववहारणयं पउच्च पुण गोदमसामिणा चवीसहमणियोगद्दाराणमादीए मंगलं कदं । ण च ववहारणओ चप्पलओ; तत्तो सिस्साण पउत्तिदंसणादो । जो बहुजीवाणुग्गहकारी ववहारणओ सो चेव समस्सिदव्वोत्ति मरणेणावहारिय गोदमथेरेण मंगलं तस्थ कयं । " अर्थ - गौतम गणधर ने व्यवहारनय का आश्रय लेकर कृति आदि चौबीस अनुयोग द्वारों के आदि में 'मो जिणाणं इत्यादिरूप से मंगल किया है। यदि कहा जाय व्यवहारनय असत्य है, सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि उसमें शिष्यों की प्रवृत्ति देखी जाती है । अतः जो व्यवहारनय बहुत जीवों का अनुग्रह करने वाला है उसी का आश्रय करना चाहिये, ऐसा मन में निश्चय करके गौतमस्थविर ( गणधर ) ने चौबीस अनुयोगद्वारों के आदि में मंगल किया है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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