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________________ ६०६ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : "सरागी जीव के सम्यग्दर्शन को सरागसम्यग्दर्शन कहा है और वीतरागी जीव के सम्यग्दर्शन को वीतरागसम्यग्दर्शन कहा है । उपशम आदि के भेद से सम्यग्दर्शन के तीन भेद बतलाये हैं । इनमें से वेदक सम्यग्दर्शन तो सराग अवस्था में ही पाया जाता है, किन्तु शेष दो सम्यग्दर्शन सराग और वीतराग दोनों अवस्थाओं में पाये जाते हैं । राजवार्तिक में एक क्षायिक सम्यग्दर्शन को ही वीतराग सम्यग्दर्शन बतलाया है । सो यह प्रापेक्षिक कथन है । चारित्र मोहनीय के क्षय से होनेवाली वीतरागता क्षायिकसम्यग्दर्शन के सद्भाव में ही होती है, अन्यत्र नहीं । यही सबब है कि राजवार्तिक में क्षायिकसम्यग्दर्शन को ही वीतरागसम्यग्दर्शन लिखा है । किन्तु कषायों की उपशमजन्य वीतरागता उपशमसम्यग्दर्शन के सद्भाव में भी प्रगट होती हुई देखी जाती है। इससे अन्यत्र इसे भी वीतरागसम्यग्दर्शन बतलाया है। प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य ये चार ऐसे चिह्न हैं जो सरागता के रहते हुए भी सम्यग्दर्शन के सद्भाव के ज्ञायक हैं, अतः यहाँ सरागसम्यग्दर्शन के लक्षण में इन धर्मों को प्रमुखता दी गई है । किन्तु वीतरागसम्यग्दर्शन में आत्मा की परिणति में निर्मलता पाई जाती है, वहीं रागांश का सर्वथा अभाव हो जाता है | अतः वहाँ वीतरागसम्यग्दर्शन को आत्मा की विशुद्धिरूप से लक्षित किया गया है ।" प्रश्नकर्ता ने जो श्री पं० फूलचन्दजी के वाक्य मई १९६५ के सन्मति संदेश से उद्धृत किये हैं, वे श्री पं० फूलचन्दजी के उपर्युक्त लेख से भिन्न हैं पाठकगण श्री पं० फूलचन्दजी के सन् १९५५ के और १९६५ के लेखों पर विचार करें कि एक विषय पर इन दोनों लेखों में विभिन्नता का क्या कारण है ? - जै. ग. / 1-7-65 / VII / .... सराग स्वसंवेदन एवं वीतराग स्वसंवेदन शंका- स्वानुभूति निर्विकल्प हो या सविकल्प हो, किन्तु सम्यक्त्व दोनों अवस्थाओं में एकसा रहता है । सविकल्प अवस्था में भी निर्विकल्प अवस्था के समान सम्यक्त्व रह सकता है या नहीं ? समाधान - मिध्यात्वप्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति सम्यक्त्वप्रकृति व अनन्तानुबन्धी क्रोध - मान-माया-लोभ इन सात प्रकृतियों का उपशम, क्षयोपशम या क्षय है तो सम्यग्दर्शन है, अन्यथा नहीं है । सविकल्प और निर्विकल्प इन दोनों अवस्थानों में सम्यग्दर्शन हो सकता है, किन्तु वीतरागनिर्विकल्प समाधि की अवस्था में सम्यग्दर्शन में जो निर्मलता व विशुद्धि होती है वह सविकल्प- सरागप्रावस्था में नहीं रहती है । यद्यपि सामान्य की अपेक्षा दोनों अवस्थाओं को समान कहा जा सकता है, किन्तु निर्मलता व विशुद्धता की अपेक्षा तरतमता है । सराग व सविकल्पअवस्था में व्यवहारसम्यग्दर्शन है और वीतरागनिर्विकल्पसमाधि की अवस्था में निश्चयसम्यग्दर्शन है । “विशदाखण्डेकज्ञानाकारे स्वशुद्धात्मनि परिच्छित्तिरूपं सविकल्पज्ञानं स्वशुद्धात्मोपावेयभूत रुचि विकरूपरूपं सम्यग्दर्शनं तवात्मनि रागादिविकल्पनिवृत्तिरूपं सविकल्पचारित्रमिति त्रयम् । तत् त्रयप्रसादेनोत्पन्न यन्निविकल्पसमाधिरूपं निश्चयरत्नत्रयलक्षणं विशिष्ट स्वसंवेदनज्ञानं " निर्मल अखंड एक ज्ञानाकाररूप अपने ही शुद्धात्मा में जानने रूप सविकल्प ज्ञान तथा शुद्धात्मा ही ग्रहरण करने योग्य है ऐसी रुचि सो विकल्परूप सम्यग्दर्शन और इसी आत्मा के स्वरूप में सविकल्पचारित्र इन तीनों के प्रसाद से विकल्परहित समाधिरूप निश्चयरत्नत्रयमय विशेष स्व-संवेदनज्ञान उत्पन्न होता है । इससे स्पष्ट हो जाता है कि सविकल्प अवस्था के स्वसंवेदनज्ञान तथा निर्विकल्पअवस्था के स्वसंवेदनज्ञान इन दोनों स्वसंवेदनज्ञानों में भी अन्तर है । जिसप्रकार जल की सतरंग अवस्था में अपना मुख स्पष्ट दिखलाई नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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