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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [१०७ देता उसीप्रकार सविकल्पअवस्था में अपना स्वरूप स्पष्ट दिखलाई नहीं देता है। जल की निस्तरंग अवस्था में अपना मुख स्पष्ट दिखलाई देता है उसी प्रकार निर्विकल्पअवस्था में अपना स्वरूप स्पष्ट दिखलाई देता है। समयसार में श्री जयसेनाचार्य ने सरागस्वसंवेदनज्ञान तथा वीतरागस्वसंवेदनज्ञान की निम्न प्रकार व्याख्या की है "विषयसुखानुभवानंदरूपं स्वसंवेदनज्ञानं सर्वजनप्रसिद्ध सरागमप्यस्ति । शुद्धात्म सुखावि भूतिरूपं स्वसंवेदन ज्ञानं वीतरागमिति ।" समयसार गा. ९६ की टीका। अर्थ-विषयसुख-अनुभव के आनन्दरूप स्वसंवेदनज्ञान होता है वह सर्वजन प्रसिद्ध है। वह सराग स्वसंवेदन ज्ञान होता है, किन्तु जो शुद्ध-आत्मा के सुखानुभवरूप स्वसंवेदनज्ञान होता है वह वीतराग स्वसंवेदनज्ञान होता है । -.ग. 18-3-71/VII/ रो. ला. मित्तल वीतरागसम्यक्त्व शंका-श्री राजवातिक अध्याय १ सूत्र २ वा० ३१ में सात प्रकृतियों के अत्यन्त नाश होने पर वीतराग सम्यक्त्व होता है। ऐसा उल्लेख है, सो ये सात प्रकृतियां कौनसी लेनी ? समयसार पृ० २३३ में कहा है कि वीतराग सम्यक्त्व होने पर साक्षात् अबन्ध होता है सो साक्षात् अबन्ध तो बारहवें गुणस्थान से लेना चाहिए। समयसार पृ० २४५ पर छठे गुणस्थान तक सराग सम्यक्त्व कहा है, सातवें से वीतराग कहा है। हमारी समझ में वीतराग सम्यक्त्व आध्यात्मिक भाषा में सातवें गुणस्थान में और आगम भाषा में चारित्र मोहनीय का सर्वथा नाश होने पर होना चाहिए । विशेष खुलासा करें। समाधान-श्री राजवातिक अ०१ सूत्र २ वार्तिक २९ में सम्यग्दर्शन दो प्रकार का कहा है-सराग समयाव और वीतराग सम्यक्त्व । वार्तिक ३० में सराग सम्यक्त्व का लक्षण 'प्रशम, संवेग, अनुकम्पा, आस्तिक्य' कहा है। वार्तिक ३१ में वीतराग सम्यक्त्व का लक्षण 'आत्मविशुद्धि' कहा है। चौथे, पांचवें, छठे गुणस्थानों में बुद्धिपूर्वक रागरूप प्रवृत्ति होती है अतः इन तीन गुणस्थानों में सराग सम्यक्त्व कहा है । सातवें गुणस्थान से बुद्धिपूर्वक रागरूप प्रवृत्ति का अभाव हो जाता है अतः सातवें से वीतराग सम्यक्त्व कहा है । ( समयसार गाथा ७७ पर श्री जयसेनाचार्य कृत टीका ) वीतराग सम्यग्दष्टि को जो साक्षात् प्रबन्धक कहा है वह बुद्धिपूर्वक बन्ध के अभाव को अपेक्षा से कहा है अथवा अधस्तन गुणस्थानों की अपेक्षा उपरितन गुणस्थानों में बन्ध-व्यूच्छित्ति अधिक-अधिक होती जाती है अतः वीतराग सम्यग्दृष्टि को अबन्धक कहा है। __सातवां गुणस्थान दो प्रकार का है-१. स्वस्थान अप्रमत्तसंयत; २. सातिशय अप्रमत्तसंयत । स्वस्थान अप्रमत्तसंयत तो प्रमत्तसंयत गुणस्थान को प्राप्त होता रहता है अर्थात् वीतराग सम्यक्त्व से सरागसम्यक्त्व में आ जाता है अतः राजवातिककार ने ऐसे स्वस्थान अप्रमत्तसंयत को वीतराग सम्यक्त्व में ग्रहण नहीं किया। सातिशय अप्रमत्तसंयत भी उपशामक और क्षपक के भेद से दो प्रकार का है। उपशामक भी गिरकर या मरकर सरागसम्यक्त्व को अवश्य प्राप्त होता है। प्रतः राजवातिक अ० १ सू०२ वार्तिक ३१ में उपशामक की भी अपेक्षा नहीं है, किन्तु सातिशय अप्रमत्तसंयत-क्षपक की अपेक्षा है, क्योंकि वह सराग सम्यक्त्व को कभी प्राप्त नहीं होता। सातिशय-अप्रमतसंयत क्षपक अर्थात् क्षपकोणी को क्षायिकसम्यग्दृष्टि ही प्रारम्भ करता है और उसी के वास्तविक आत्मविशुद्धि होती है अतः वार्तिक ३१ में चार अनन्तानुबन्धी और तीन दर्शनमोहनीय ये सात प्रकृतियाँ लेनी चाहिये। -ज.ग. 16-11-61/VI/ एल. एम. प्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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