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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ६०५ सम्यग्दर्शन के सराग, वीतराग भेद प्रागमोक्त है। शंका-सम्यक्त्व सराग व वीतराग किसी आचार्य ने बतलाया है या नहीं ? सम्यक्त्व को सराग बतलाने वाला क्या मिथ्याहृष्टि है ? समाधान-दिगम्बर जैन महानाचार्य श्री अकलंकदेव कहते हैं"सम्यग्दर्शनं द्विविधम् । कुतः ? सराग-वीतराग-विकल्पात् ।" अर्थात सरागसम्यग्दर्शन और वीतरागसम्यग्दर्शन के भेद से सम्यग्दर्शन दो प्रकार का है। सराग और वीतराग के भेद से सम्यग्दर्शन को दो प्रकार का बतलाने वाला मिथ्यादृष्टि नहीं हो सकता है, क्योंकि वीतरागी दिगम्बर जैनाचार्य कभी मिथ्योपदेश नहीं देते हैं। __ -. ग. 13-7-72/VII/ ताराचन्द महेन्द्रकुमार सराग सम्यक्त्व शंका-मई १९६५ के सन्मति संवेश पृ० ६३ पर श्री पं० कूलचन्दजी ने लिखा है तथा इसके सहभाव में प्रशम, संवेग अनुकम्पा और आस्तिक्य आदि भावों को जो अभिव्यक्ति होती है वह सराग सम्यक्त्व है।' क्या प्रशम आदि भावों की अभिव्यक्ति सराग सम्यग्दर्शन है या सराग सम्यग्दर्शन का लक्षण है ? क्या प्रशम और आस्तिक्य भाव सराग भाव है ? समाधान-प्रशम, संवेग, आस्तिक्य, अनुकम्पा की अभिव्यक्ति सरागसम्यग्दर्शन का लक्षण है और सरागसम्यग्दर्शन लक्ष्य है। यदि लक्ष्य और लक्षण में सर्वथा प्रभेद मान लिया जाये तो 'लक्ष्य और लक्षण' ऐसी दो संज्ञा ही नहीं बन सकती। इसके अतिरिक्त अन्य भी अनेक दोष आ जावेंगे । लक्ष्य और लक्षण में सर्वथा अभेद मानना 'भेदाभेद विपर्यास' है। 'प्रशमसंवेगानुकम्पास्तिक्यामिव्यक्तिलक्षणं प्रथमम् ।' सर्वार्थसिद्धि १२ । अर्थात्-प्रशम, संवेग, अनुकम्पा, आस्तिक्य की अभिव्यक्ति सरागसम्यग्दर्शन का लक्षण है। प्रशम और आस्तिक्य सरागभाव नहीं हैं। प्रशम का लक्षण निम्नप्रकार है"रागादि दोषेभ्यश्चेतो निर्वतनं प्रशमः।" तत्त्वार्थवृत्ति पा२। अर्थ-प्रात्मा की रागादि दोषों से विरक्ति प्रशमभाव है। 'रागादि दोषों से विरक्ति' सराग भाव कैसे हो सकता है अर्थात् प्रशम सरागभाव नहीं है । आस्तिक्य भी सरागभाव नहीं है, क्योंकि जीवादि पदार्थों का जैसा स्वभाव है वैसी बुद्धि होना आस्तिक्य है । जैसा कि तत्वार्यवातिक में कहा है "जीवादयोऽर्या यथास्वं भावः सन्तीति मतिरास्ति श्रीमान् पं० फूलचन्दजी ने सन् १९५५ में सरागसम्यग्दर्शन और वीतरागसम्यग्दर्शन के विषय में निम्न प्रकार लिखा था Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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