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________________ ९०४ ] [पं. रतनचन्द जैन मुख्तार। जीवाजीवा भावा पुण्णं पावं च आसवं तेसि । संवरणिज्जरबंधो मोक्खो य हवंति ते अट्ठा ॥१०८॥ [ पंचास्तिकाय ] टीका-"पंचास्तिकायषडद्रव्यविकल्परूपं जीवाजीवद्वयं जीवपूगलसंयोगपरिणामोत्पन्नात्रवाविपदार्थसप्तकं चेत्युक्तलक्षणानामावानां जीवादिनव-पदार्थानां मिथ्यात्वोदयजनित-विपरीताभिनिवेशरहितं श्रद्धानं सम्यक्त्वं भवति । इदं तु नवपदार्थविषयभूतं व्यवहारसम्यक्त्वम् । शुद्धजीवास्तिकायरुचिरूपस्य निश्चयसम्यक्त्वस्य साधकरवेन बीज-भूतम् ।" जीव, अजीव और इनके संयोग से उत्पन्न होनेवाले पुण्य, पाप, प्रास्रव, संवर, निर्जरा, बंध, मोक्ष इन पदार्थों का तथा पंचास्तिकाय व छहद्रव्यों का, जो मिथ्यात्वोदयजनित विपरीताभिनिवेशरहित श्रद्धान है वह व्यवहारसम्यग्दर्शन है। यह व्यवहारसम्यग्दर्शन, शुद्धजीवास्तिकाय की रुचिरूप निश्चयसम्यक्त्व का साधक है, इसलिये व्यवहारसम्यग्दर्शन निश्चय-सम्यग्दर्शन का बीज है । ___ यहाँ पर नवपदार्थ के श्रद्धान को जो व्यवहारसम्यग्दर्शन कहा गया है वह असद्भूतव्यवहारनय का विषय है, क्योंकि दो भिन्न पदार्थों में श्रद्धान व श्रद्धेय संबंध को व्यवहारसम्यक्त्व कहा गया है । निज शुद्धात्मा की रुचि को जो निश्चय कहा गया है यह सद्भूतव्यवहारनय का विषय है, क्योंकि यहां पर एक ही पदार्थ में श्रद्धान व श्रद्धेय का भेद किया गया है। आयारावी जाणं जीवादी देसणं च विष्णेयं । छज्जीवणिकं च तहा भणइ चरितं तु ववहारो ॥२७६॥ [समयसार] आचारांगआदि शास्त्र तो ज्ञान हैं तथा जीवादितत्त्व हैं वे सम्यग्दर्शन हैं। छहकायके जीव चारित्र हैं ऐसा व्यवहारनय कहता है । यह उपचरितनय का कथन है, क्योंकि यहां पर कारण में कार्य का उपचार किया गया है । ज्ञानरूप कार्य के आचारांग आदि शास्त्र कारण हैं। अतः आचारांग आदि शास्त्रों में ज्ञानरूप कार्य का उपचार करके आचारांग प्रादि शास्त्रों को ज्ञान कहा गया है। जीवादितत्त्व श्रद्धय हैं और इनका श्रद्धान सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शन और जीवादि पदार्थों में श्रद्धान-श्रद्धेय सम्बन्ध है, अतः जीवादि श्रद्धेयपदार्थों में सम्यग्दर्शनरूप श्रदान का उपचार करके जीवादि श्रद्धेयपदार्थों को सम्यग्दर्शन कहा गया है। ___छहकाय के जीवों की रक्षा चारित्र है । अर्थात् छहकाय के जीव चारित्र के विषय पड़ते हैं। छहकाय के जीवों में प्रौर चारित्र में परस्पर विषय-विषयी सम्बन्ध है। छहकाय के जीवरूप विषय में चारित्ररूप विषयी का उपचार करके छहकाय के जीवों को चारित्र कहा गया है। यह उपचार झूठ भी नहीं है, क्योंकि उपचार को झूठ मानने पर, "गाणं ऐयप्पमाणमुद्दिद्व"; ज्ञान ज्ञेय. प्रमाण है ऐसा जो जिनेन्द्र भगवान ने कहा है, यह कथन अर्थात् सर्वज्ञता का कथन भी उपचरितनय का विषय होने से झूठ हो जायगा । दो पदार्थों का परस्पर सम्बन्ध निश्चयनय का विषय नहीं है । अतः निश्चयनय-व्यवहारनय के विषय का निषेध करता है। इसप्रकार निजशुद्धात्मा का श्रद्धान निश्चय सम्यग्दर्शन है, यह सद्भूतव्यवहारनय का विषय है। जीवादिपदार्थों का श्रद्धान व्यवहारसम्यग्दर्शन है, यह असद्भूतव्यवहारनय का विषय है। जीवादिपदार्थ सम्यग्दर्शन है। यह उपचरितनय का विषय है ये तीनों कथन अपनी-अपनी नय की अपेक्षा सत्य हैं। -जं. ग. 22-2-73/VII/ ग. म. सोनी, फुलेरा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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