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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [६०३ मुख्य के अभाव में प्रयोजनवश या निमित्तवश उपचार की प्रवृत्ति होती है। अविनाभाव सम्बन्ध में, संश्लेषसम्बन्ध में, परिणाम-परिणामोसम्बन्ध में, श्रद्धा-श्रद्धयसम्बन्ध में, ज्ञानज्ञेयसम्बन्ध में, चारित्र-चर्या इत्यादि सम्बन्धों में, प्रयोजन या निमित्त के वश उपचार होता है। प्रमेय रत्नमाला पृ० १७६ पर भी कहा है "मुख्य का अभाव होने पर तथा प्रयोजन और निमित्त के होने पर उपचार की प्रवृत्ति होती है, ऐसा नियम है। यहां पर वचन का परार्थानुमानपने में कारणपना ही उपचार का निमित्त है । अतः प्रतिपाद्य जो शिष्य उसके लिये जो अनुमान सो परार्थानुमान है, उसका प्रतिपादक वचन भी परार्थानुमान है । यहाँ अनुमान के कारण वचन में ज्ञानरूप कार्य का उपचार किया गया है।" इसीप्रकार तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय छह, सूत्र २ में जो योग को आस्रव कहा है, वहां पर भी कारण में कार्य का उपचार करके कथन किया गया है। यह उपचार असत्यार्थ ( झूठ ) भी नहीं है, क्योंकि कार्य और कारण का परस्पर में सम्बन्ध है । व्यवहार व उपचरितनय की अपेक्षा सम्यग्दर्शन आदि का विचार किया जाता है । एवं हि जीवराया णादवो तह य सद्दहेवन्यो। अणुचरिवश्वो य पुणो सो चेव दु मोक्खकामेण ॥२१॥ [ समयसार ] मोक्षार्थी पुरुष को निज शुद्धजीवरूपी राजा को जानना चाहिये, श्रद्धान करना चाहिये और निजशुद्ध आत्मस्वभाव के अनुकूल आचरण करना चाहिये । मोक्षमार्ग का यह कथन निज जीवद्रव्याश्रित होने से सद्भ तव्यवहारनय का विषय है तथापि असद्भ तव्यवहारनय की अपेक्षा से इसको निश्चय मोक्षमार्ग या निश्चय रत्नत्रय कहा गया है। असद्भ तव्यवहारनय की अपेक्षा 'निजशुद्धात्मा के श्रद्धान' को यद्यपि निश्चयसम्यक्त्व कहा जाता है तथापि सम्यग्दर्शन का यह लक्षण सद्भूतव्यवहारनय का विषय है, क्योंकि यहां पर एक ही द्रव्य में, श्रद्धान करनेवाला, श्रद्धान और जिसका श्रद्धान किया जाये अर्थात् कर्ता, क्रिया, कर्म, ऐसे तीन भेद कर दिये गये हैं। "निश्चयनयोऽभेदविषयो, व्यवहारो भेदविषयः।" इस सूत्र के द्वारा 'भेद' व्यवहारनय का विषय बतलाया गया है। निश्चयनय का विषय तो अभेद है। अतः निजशुद्धात्मा का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है। यह कथन निश्चयनय का विषय नहीं हो सकता है। नियमसार में श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने व्यवहारसम्यग्दर्शन का स्वरूप निम्न प्रकार कहा है अत्तागमतच्चाणं सद्दहणादो हवेइ सम्मत्तं । ववगयअसेस-दोसो सयलगुणप्पा हवे अत्तो ॥५॥ "व्यवहारसम्यक्त्वस्वरूपाख्यानमेतत् ।" आप्त, आगम और तत्त्वों की श्रद्धा से सम्यक्त्व होता है । यह व्यवहार सम्यक्त्व के स्वरूप का कथन है। सम्मत्तं सहहणं भावाणं तेसि मधिगमोणाणं। चारित्तं समभावो विसयेसु विरूढ़मग्गाणं ॥१०७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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