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________________ ९०२ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : मुक्तश्चेत् प्राक्मवेद् बन्धो, नो बंधो मोचनं कथम् । अबंधे मोचनं मंत्र मुञ्चेरर्थो निरर्थकः ॥ [ वृ० द्र० सं० "बन्धश्च शुद्ध निश्चयेन नास्ति तथा बंधपूर्वको मोक्षोऽपि । यदि पुनः शुद्ध निश्चयेन बंधो भवति तदा सर्वदेव बंध एव, मोक्षो नास्ति ।" [ वृ० द्र० सं० ] अर्थ-यदि जीव मुक्त है तो पहले इस जीव के बंध अवश्य होना चाहिये, क्योंकि यदि बंध न तो मोक्ष (छूटना ) कैसे हो सकता है । इसलिये अबंध ( न बंधे हुए ) की मुक्ति नहीं हुआ करती, उसके तो मुञ्च धातु ( छूटने का वाचक शब्द ) का प्रयोग ही व्यर्थ है । कोई मनुष्य पहले बधा हुआ कहलाता है । ऐसे ही जो जीव पहले कर्मों से बंधा हो उसी को मोक्ष होती है। है ही नहीं । इसीप्रकार शुद्ध निश्चयनय से बंधपूर्वक मोक्ष भी नहीं है । यदि शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा बंध होवे तो सदा ही बंध होता रहे, मोक्ष ही न हो । हो, फिर छूटे, तब वह मुक्त शुद्ध निश्चयनय को अपेक्षा से बंध इस आगम से यह सिद्ध हो जाता है कि निश्चयनय से न बंध है, न मोक्ष है और न मोक्षमार्ग है । बंध, मोक्ष, मोक्षमार्गं ये पर्यायें हैं, जो व्यवहारनय की विषय हैं । निश्चयनय का विषय द्रव्य सामान्य है, पर्याय नहीं है । णिच्छ्यववहारणया मूलभेया णयाण सव्वाणं । छिसाहणहेऊ दव्वयपज्जस्थिया मुणह ॥ ४ ॥ [ आलापपद्धति ] सम्पूर्ण नयों के निश्चयनय और व्यवहारनय ये दो मूल भेद हैं । निश्चयनय का हेतु द्रव्यार्थिकनय है, और साधन अर्थात् व्यवहारनय का हेतु पर्यायार्थिकनय है । "समयसार गाथा ५६ की टीका में श्री अमृतचन्द्राचार्य ने कहा है- 'व्यवहारनयः किल पर्यायाधित्वात्' 'निश्चयनयस्तु द्रव्याधित्वात्' अर्थात् व्यवहारनय पर्याय के आश्रय है और निश्चयतय द्रव्य के आश्रय है । "ववहारो य वियप्पो भेदो तह पज्जओ ति एयट्ठो ॥५७२॥ [ गो० जी० ] "व्यवहारेण विकल्पेन भेदेन पर्यायेण ।” [ समयसार गा० १२ की टीका ] अर्थात् - व्यवहार, विकल्प, भेद और पर्याय ये सब एकार्थवाची शब्द हैं। बंध, मोक्ष और मोक्षमार्ग पर्याय होने से व्यवहारनय का ही विषय है, निश्चयतय का विषय नहीं है । Jain Education International सद्भूतव्यवहारनय, असद्ध तव्यवहारनय, उपचारनय इन तीन नयों की अपेक्षासे मोक्षभागं की मीमांसा की जाती है । "कवस्तुविषयः सद्भूतव्यवहारः ॥ २२१॥ भिन्न वस्तुविषयोऽसद्भूतव्यवहारः ॥२२२॥ [आ. प.]" एक वस्तु को विषय करने वाला सद्भूतव्यवहारनय है। भिन्न वस्तुओं को विषय करनेवाला असद्भूत व्यवहारनय है । "मुख्याभावे सति प्रयोजने निमित्ते चोपचारः प्रवर्तते ।।२१२।। सोऽपि सम्बन्धोऽविनाभावः संश्लेषः सम्बन्धः परिणाम. परिणामिसम्बन्धः, श्रद्धाश्रद्धय सम्बन्धः, ज्ञानज्ञेयसम्बन्धः, चारित्रचर्यासम्बन्धश्चेत्यादि ।" [आलापपद्धति ] For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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